[1280x768] Bhagwat Khandanam (1866) by Maharshi Dayanand Saraswati (1824-1883)
Eknathi Bhagwat Adhyaya 2 A5
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Transcript of Eknathi Bhagwat Adhyaya 2 A5
॥ श्री एकनाथी भागवत॥
अध्याय दुसरा
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ १ दिनाांक २६/०४/२०१५
॥ श्री एकनाथी भागवत ॥ अध्याय दुसरा
श्रीगणशेाय नमः ॥ श्री गोपालकृष्णाय नमः ॥ जय जय िवेादििवेा । भोदगसी गरुुत्वें सहुावा ।
दवश्वीं दवश्वात्मा य ेसि भावा । त ां कृपनेें जवे्ाां अवलोदकसी ॥ १ ॥ त ेदवश्वीं जो दवश्ववासी । त्यातें दवश्वासी म्हणसी ।
तणेें दवश्वासें प्रसन्न होसी । तैं पायाांपाशीं प्रवशे ु॥ २ ॥ त्या चरणारदवांिकृपादृष्टी । अहां सोहां सटुल्या गाांठी । एकसरें तझु्या पोटीं । उठा उठी प्रवशेलों ॥ ३ ॥ यालागीं त ां दनजात्ममाय े। या हेत ुजांव पाहों जायें ।
तांव बापपण तजुमाजीं आह े। अदभनव काय ेसाांगावें ॥ ४ ॥ यथे मातादपता िोनी । वगेळीं असती जनीं ।
त ेिोनी एक करोनी । एका जनाि दनीं दनजतान्हें ॥ ५ ॥ आताां उभयस्नहेें स्नहेाळा । वाढदवसी मज बाळा ।
परी दनत्य नवा सोहळा । सांभ्रम ुआगळा दनजबोिाचा ॥ ६ ॥ दशव शदि गणशे ु। दवश्व दवष्ण ुचांडाांश ु।
ऐसा अलांकार बहुवस ु। दनजदवलास ुलेवदवशी ॥ ७ ॥ यापरी मज दनजबाळा । लेणीं लेवदवशी स्वलीळा ।
आदण ले इलेपणाचा सोहळा । पहाशीं वळेोवळेाां कृपादृष्टीं ॥ ८ ॥ बाळका लेवदवज ेलेणें । तयाचें सखु तें काय जाण े।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ २ दिनाांक २६/०४/२०१५
तो सोहळा मातनेें भोगणें । तवेीं जनाि दनें भोदगज ेसखु ॥ ९ ॥ आपलु्या दचि रत नाांच्या गा गाांठी । आवडी िादलशी माझ्या कां ठी । यालागीं मज पाठोवाठीं । दनजात्मदृष्टीं सवें िाांव े॥ १० ॥ समथ द जयाचा जनकु । त्यास मादनती सकळ लोकु ।
एका जनाि दनीं एकु । अमान्य अदिकु मान्य कीज े॥ ११ ॥ बाळक स्वयें बोलों नणे े। त्यासी माता दशकवी वचनें । तशैीं ग्रांथकथाकथनें । स्वयें जनाि दनें बोलदवज े॥ १२ ॥
तणेें नवल केलें यथे । म खा दहाती श्रीभागवत । शखेीं बोलदवलें प्राकृत । एकािशाथ द िवेभाषा ॥ १३ ॥ पदरसोदन प्रथम अध्यावो । उगादच रादहला कुरुरावो । पढुें कथाकथनीं ठावो । काांहीं अदभप्रावो दिसनेा ॥ १४ ॥ आपण करावा प्रश्न । तांव हा साांगले कृष्णदनिन । यालागीं राजा मौन । ठेला िरून दनवाांत ॥ १५ ॥ जाणोदन त्याचा अदभप्रावो । बोलत जाहला शकुिवेो ।
तो म्हण ेमोक्षाचा प्रस्तावो । तो हा अध्यावो परीदक्षदत ॥ १६ ॥ हा एकािश अलोदलक । श्लोकाहून श्लोक अदिक ।
पिोपिीं मदुिसखु । लगटले िखे दनजसािकाां ॥ १७ ॥ ऐसें ऐकताांदच वचन । राजा जाहला साविान ।
मदुिसखुीं आवडी गहन । अविानें कान सवाांग केले ॥ १८ ॥ ऐसें िखेोन परीदक्षती । शकु सखुाव ेअत्यांत दचत्तीं ।
तो म्हण ेअविानम ती । ऐक दनदितीं गहु्यज्ञान ॥ १९ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ३ दिनाांक २६/०४/२०१५
दितीयाध्यायीं दनरूपण । नारि वसिुवेसांवाि जाण । दनदमजायांताांच ेप्रश्न । मखु्य लक्षण भागवतिमद ॥ २० ॥
श्रीशकु उवाच । गोदवन्दभजुगपु्तायाां िारवत्याां कुरूिह ।
अवात्सीन्नारिोऽभीक्ष्णां कृष्णोपासनलालसः ॥ १ ॥ जो मिुाांमाजीं अग्रणी । जो ब्रह्मचादरयाां दशरोमणी ।
योगी वांदिती मकुुटस्थानीं । जो भिमांडणीं अदतश्रषे्ठ ॥ २१ ॥ जो ब्रह्मरसाचा समदु्र । जो दनजबोिाचा प ण दचांद्र ।
तो बोलता झाला शकु योगींद्र । श्रोता नरेंद्र कुरुवांशीचा ॥ २२ ॥ तो म्हण ेव्यासाचा जो दनजगरुु । आदण माझाही परमगरुु ।
नारि महामनुीश्वरु । त्यासी अदत आिरु श्रीकृष्णभजनीं ॥ २३ ॥ िारकेहूदन स्वयें श्रीकृष्ण । दपांडारका पाठवी मदुनगण ।
तथे दन नारि आपण । िारकेसी जाण पनुः पनुः यते ु॥ २४ ॥ हो काां ज ेिारके आांत । न दरि ेभय काळकृत ।
जथे स्वयें श्रीकृष्णनाथ । अस ेनाांित दनजसामर्थ्यें ॥ २५ ॥ िक्षशाप ुनारिासी पाहीं । महुूत द राहों नय ेएके ठायीं ।
तो शाप ुहदरकीत दनीं नाहीं । यालागीं तो पाहीं दकत दनदनषु्ठ ॥ २६ ॥ ज्याची गा इज ेकीत दनीं कीती । तो िारकेसी वस ेस्वयें श्रीपती ।
तथेें शापबािचेी न चले प्राप्ती । यालागीं दनत्यवस्ती नारिादस तथेें ॥ २७ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ४ दिनाांक २६/०४/२०१५
नारिासी प ण द ब्रह्मज्ञान । त्यासी काां कृष्णम तीचें ध्यान । श्रीकृष्णिहेो चतैन्यिन। यालागी श्रीकृष्णभजन नारिा पदढयें॥२८॥
यापरी कृष्णभजन । मिुाांसी पदढय ेप ण द । त्यासी न भज ेअभागी कोण । तेंदच दनरूपण शकु साांग े॥ २९ ॥
को न ुराजन इदियवान मकुुन्दचरणाम्बजुम । न भजते्सवदतोमतृ्यःु उपास्यममरोत्तमःै ॥ २ ॥ ऐकें बापा नपृवया द । य ेऊदन उत्तमा िहेा या ।
जो न भज ेश्रीकृष्णराया । तो दगदळला माया अदतदुःखें ॥ ३० ॥ ज्या भगवांतालागनुी । माथा िरूदन पायवणी ।
सिादशव बसैला आत्मध्यानीं । महाश्मशानीं दनजवस्ती ॥ ३१ ॥ पोटा आला चतरुानन । इतराांचा पाडु कोण ।
िहेा यवेोदन नारायण । न भज ेतो प ण द मतृ्यगु्रस्त ॥ ३२ ॥ त्यज दन परमात्मा प ण द । नाना सािनें दशणती जन ।
त्यासी सव दथा दृढबांिन । न चकेु जाण अदनवार ॥ ३३ ॥ साांड दन श्रीकृष्णचरण । इांद्रादि िवेाांचें कदरताां भजन ।
त ेिवे मतृ्यगु्रस्त प ण द । मा भजत्याचें मरण कोण वारी ॥ ३४ ॥ असोदन इांदद्रयपाटव प ण द । जो न भज ेश्रीकृष्णचरण । त्यासी सव दत्र बािी मरण । क्षणक्षण दनिा दळी ॥
तो नारि महामनुीश्वरु । मिु हो ऊदन भजनतत्परु । िारके वस ेदनरांतरु । श्रीकृष्णीं थोरु अदतप्रीदत तया ॥ ३६ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ५ दिनाांक २६/०४/२०१५
तमकेिा त ुिवेदषां वसिुवेो गहृागतम । अदच दतां सखुमासीन ां अदभवाद्यिेमब्रवीत ॥ ३ ॥ िन्य िन्य तो नारदु । ज्यासी सवीं सव दत्र गोदवांदु ।
सवदिा हदरनामाचा छांदु । तणेें परमान ांदु सिोदित ॥ ३७ ॥ जो श्रीकृष्णाचा आवडता । ज्यासी श्रीकृष्ण आवड ेसव दथा । ज्याचदेन सांगें तत्त्वताां । दनत्यमिुता जडजीवाां ॥ ३८ ॥
तो नारदु एके वळेाां । स्वानांिादचया स्वलीळा । आला वसिुवेादचया रा उळा । तणेें िखेोदन डोळाां हदरखला ॥ ३९ ॥
केलें साष्टाांग नमन । बसैों िातलें वरासन । ब्रह्मसि भावें प जन । श्रद्धासांप ण द माांदडलें ॥ ४० ॥ नारि तोदच नारायण । यणेें दवश्वासेंकरूदन जाण ।
हमेपात्रीं चरणक्षाळण । मिपुकद दवदिप ण द प जा केली ॥ ४१ ॥ प जा करोदन साविानीं । वसिुवे बसैोनी सखुासनीं ।
हृियीं अत्यांत सखुावोनी । काय आल्हािोनी बोलत ॥ ४२ ॥ श्रीवसिुवे उवाच ।
भगवन्भवतो यात्रा स्वस्तय ेसवदिदेहनाम । कृपणानाां यथा दपत्रोः उत्तमश्लोकवत्मदनाम ॥ ४ ॥
स्वलीला कृपा केली तमु्हीं । तणेें परम सभाग्य जाहलों जी मी । तमुचदेन आगमनें आम्ही । कृतकृत्य स्वामी सदन्नदिमात्रें ॥ ४३ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ६ दिनाांक २६/०४/२०१५
चकुदलया दनजजननी । बाळक िीन दिस ेजनीं । त्यासी मातचे्या गा आगमनीं । सांतोष मनीं दनभ दर ॥ ४४ ॥ त्याहूदन श्रषे्ठ तमुची यात्रा । दनत्य सखुिाती भ तमात्राां । स्वलीला तमु्ही मही दवचराां । िीनोद्धारालागनुी ॥ ४५ ॥
मातचे्या गा आगमनीं दनजबाळा । दृदष्ट उत्सांगीं दनत्य नवा सोहळा । तमुची यात्रा िीनाां सकळाां । भोगवी स्वलीळा दनजात्मसखु ॥ ४६ ॥
माता सखु ि ेतें नश्वर । तमुच्या गा आगमनीं अनश्वर । दनत्य दचत्सखु दचन्मात्र । परात्पर भोगावया ॥ ४७ ॥
तमु्ही भागवतिमदमाग दगामी । तैंदच तमुची भटेी लाहों आम्ही । जैं पणु्यकोटी दनष्कामीं । प्रयागसांगमीं केदलया ॥ ४८ ॥ नारिा त ां भगवि रूप । तझुी भटेी करी दनष्पाप ।
तवुाां कृपा केदलया अल्प । स्वयें दचत्स्वरूप ठसाव े॥ ४९ ॥ तझुदेन भिीसी मदहमा अम प । तझुदेन वाढला भदिप्रताप । तझुदेन भदि भगवि रूप । त ां दचत्स्वरूप दनजदनष्ठाां ॥ ५० ॥ त ां भदिप्रकाशकु दिवटा । कीं भदिमागींचा माग ददृष्टा ।
नारिा तझुा उपकार मोठा । भिीच्या गा पठेा वसदवल्या तवुाां ॥ ५१ ॥ मखु्य भागवतशास्त्र प ण द । तवुाां व्यासासी उपिशे न ।
प्रगट करदवलें िशलक्षण । िीन जन उद्धरावया ॥ ५२ ॥ नारिा त ां िवेासमान । हेही उपमा दिस ेगौण ।
तदेचदवषयीं दनरूपण । वसिुवे आपण दनरूपी ॥ ५३ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ७ दिनाांक २६/०४/२०१५
भ तानाां िवेचदरतां दुःखाय च सखुाय च । सखुायवै दह साि नाां त्वादृशामच्या गतुात्मनाम ॥ ५ ॥ िवेाांपास दन भ तसषृ्टी । सखुदुःखें दशण ेपोटीं ।
अदतवषृ्टी काां अनावषृ्टी । भ तकोटी आकाांत ु॥ ५४ ॥ त्या िवेाांपरीस साि ुअदिक । हें साचदच मज मानलें िखे । िवेचदरत ेउठी सखुदुःख । साि ुदनिोख सखुिात े॥ ५५ ॥ त्याांहीमाजीं तजुसादरखा । जोडल्या कृपाळ दनजात्मसखुा ।
तैं पठे दपके परमाथ दसखुा । हा मदहमाां लोकाां किा न कळेदच ॥ ५६ ॥ दििल्या सखुादच मागतुी । च्या गतुी हों नणे ेकल्पाांतीं ।
त ेअच्या गतुात्मदस्थती । तजुपाशी दनदितीं नारिा ॥ ५७ ॥ तदुझय ेमदहमपेासीं । मिुल िवेो नय ेतकुासी ।
तेंही साांगने मी तजुपासीं । यथाथेंसी नारिा ॥ ५८ ॥ िवेाचा अवतार होय े। िासाां सखु ितै्याां भय े।
तथेहेी ऐस ेदवषम आह े। हें न समाय ेतजुमाजीं ॥ ५९ ॥ त ां िवेाांचा आप्त होसी । ितै्यही दवश्वासती तजुपासीं ।
रावण न ेऊदन तजु एकाांतासी । दनजगहु्यासी स्वयें साांग े॥ ६० ॥ िवे रावणें िातलें बांिीं । तो रावण तझु ेचरण वांिी ।
शखेी रामाचा आप्त त ां दत्रशदु्धी । दवषम तजुमिीं असनेा ॥ ६१ ॥ जरासांि ुकृष्णाचा वरैी । तझुी चाल त्याच्या गा िरीं ।
आदण कृष्णाच ेसभमेाझारीं । आप्तत्वें थोरी पैं तझुी ॥ ६२ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ८ दिनाांक २६/०४/२०१५
नाम िवेों निेी िवेाचें । हें दबरुि दहरण्यकदशप चें । त्यासी कीत दन तझुें रुच े। दवषमत्व साचें तजु नाहीं ॥ ६३ ॥ लाांचगुी बदुद्ध सिा िवेाांसी । तशैी नाहीं तमु्हाां साि ांसी । ऐक त्याही अदभप्रायासी । यथाथेंसीं साांगने ॥ ६४ ॥ भजदि य ेयथा िवेान्दवेा अदप तथवै तान ।
छायवे कम दसदचवाः सािवो िीनवत्सलाः ॥ ६ ॥ ज ेजसै ेिवे यागीं यदजजती । तसैतसैी फळें िवे ितेी । न भजत्याांतें दवघ्नें स दचती । ऐसी गती िवेाांची ॥ ६५ ॥
जसैजसैा परुुष वेंठे । तसैतसैी छाया नटे । तवेीं भजनें िवे प्रसन्न मोठे । यरेवीं उफराटें दवघ्न कदरती ॥ ६६ ॥ जांव जांव स य द प्रकाशत अस े। तांव तांव छाया सदरसी दिस े।
दनजकमें िवेही तसै े। कम दवशें प्रसन्न ॥ ६७ ॥ स य द अस्तमानीं छाया नास े। अभजनें िवे क्षोभती तसै े। एवां लाांचगु ेिवे ऐस े। त ांही अनायास ेजाणसी ॥ ६८ ॥ इतर िवेाांची कथा कोण । थोरला िवे लाांचगुा प ण द ।
तोही न भटेे जीव ितेल्यादवण । भटेल्याच ेआपण गभ दवास सोसी ॥ ६९ ॥
त्याचें जीवें सव दस्वें भजन । केल्या दनजाांग ि ेऊदन होय ेप्रसन्न । परी न भजत्याच्या गा िरा जाण । दवसरोदन आपण किा न वच े॥ ७०
॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ९ दिनाांक २६/०४/२०१५
तसैी नव् ेतमुची बदु्धी । िीनियाळ दत्रशदु्धी । त ां तांव केवळ कृपादनिी । ऐक तो दविी साांगने ॥ ७१ ॥ तवुाां व्यास िखेोदन सज्ञान । उपिदेशलें गहु्यज्ञान ।
ध्रवु बाळक अज्ञान । म्हणोदन जाण नपुदेक्षसी ॥ ७२ ॥ प्रल्हाि उपिदेशला जवे्ाां । ितै्यपतु्र न म्हणसी तवे्ाां ।
तदुझया कृपचेा हलेावा । तो दनजदवसाांवा िीनाांसी ॥ ७३ ॥ केवळ वाटपाडा िखे । भजनेंवीण एका एक ।
महाकवी केला वाल्मीक । अमर आवश्यक वांदिती त्यासी ॥ ७४ ॥ िखेोदन ज्यादचया ग्रांथासी । सखु वोसांड ेसिादशवासी । ऐसा त ां कृपाळ होसी । अनाथासी कुवाांसा ॥ ७५ ॥
वदरवरी िादवसी दमणिा कोप । कोपोदन साांडदवशी त्याचें पाप । शखेीं सायजु्याच ेिीप । िादवशी सि रूप ियाळुवा ॥ ७६ ॥
तमु्ही अच्या गतुात्म ेदनजदनिा दरीं । म्हणौदन िवेो तमुचा आज्ञािारी । तमु्ही म्हणाल त्यातें उद्धरी । यरे् हवीं हातीं न िरी आनातें ॥ ७७ ॥
ऐसा त ां िीनिीक्षागरुु । ब्रह्मज्ञान ेअदत उिारु । तरी पसुने तो दवचारु । दनजदनिा दरु साांगावा ॥ ७८ ॥
ब्रह्मन तथादप पचृ्छामो िमा दन्भागवताांस्तव । यान्श्श्रतु्वा श्रद्धया मत्यो मचु्या गत ेसव दतो भयात ॥ ७ ॥
आिरें म्हण ेिवेऋषी । आदज सकळ पणु्यें आलीं फळासी । मायबाप त ां िरा आलासी । दनजसखुासी िायक ॥ ७९ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ १० दिनाांक २६/०४/२०१५
कृपा केली मागील दशष्ाां । तदेच कृपचेा िालीं ठसा । मज तझुा प ण द भरांवसा । सोडवीं भवपाशापास दन ॥ ८० ॥ तझुदेन िशदनें कृतकृत्यता । जर् ही मज जाली तत्त्वताां । तर् ही भागवतिमदकथा । कृपनेें तत्त्वताां साांगावी ॥ ८१ ॥ ऐस ेसाांगाव ेभागवतिमद । जणेें दनरस ेकमा दकम द । श्रद्धनेें ऐकताां परम । जन्ममरण हारप े॥८२ ॥
भवभय अदत िारुण । त्या भयाचें माया दनजकारण । दतचें सम ळ होय दनिा दळण । ऐस ेिम द कृपनेें साांगाव े॥ ८३ ॥
मज नाही अदिकार प ण द । ऐसें दवचाराल लक्षण । तदेवषयींची हे दनवारण । साविान अविारीं ॥ ८४ ॥
अहां दकल परुानिां प्रजाथो भदुव मदुििम । अप जयां न मोक्षाय मोदहतो िवेमायया ॥ ८ ॥
मज अदिकारु नाहीं प ण द । हें मीही जाणतो आपण । मागें म्ाां केले भगवि भजन । तें त ां कथन अविारीं ॥ ८५ ॥ म्ाां प वीं आरादिलें िवेराया । तें भजन ममता नलेें वायाां ।
प्रलोभदवलों िवेमाया । पतु्रस्नहेालाग दन ॥ ८६ ॥ मज िवे तषु्टला प्रसन्नपणें । मागसी त ां ि ेईन म्हण े।
तथेें मायनेें ठदकलें मजकारणें । माझा पतु्र होणें मी मागें ॥ ८७ ॥ तो हा माझा पतु्र श्रीकृष्ण । परी मज न साांग ेब्रह्मज्ञान । तोदच वांिी माझ ेचरण । म्हण ेबाळक प ण द मी तझुें ॥ ८८ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ११ दिनाांक २६/०४/२०१५
यापरी श्रीकृष्णापासीं । ज्ञानप्रादप्त नव् ेआम्हाांसी । कृष्ण परमात्मा हृषीकेशी । हें दनियेंसीं मी जाणें ॥ ८९ ॥
श्रीकृष्ण जन्मला मादझया कुशीं । म्हणौदन श्रद्धा आह ेमजपाशीं । तणेेंदच त ां तषु्टलासी िवेऋषी । तरी दनजकृपेंसीं उद्धरी ॥ ९० ॥
ज ेमायनेें ठदकलो वाडेंकोडें । त ेमाया सम ळ झड े। ऐसें साांदगजें रोकडें । बहू बोलोदन पढुें काय काज ॥ ९१ ॥
यथा दवदचत्रव्यसनाि भवि दभदव दश्वतोभयात । मचु्या गमे ह्यञ्जसवैाद्धा तथा नः शादि सवु्रत ॥ ९ ॥ मायाजलें भवसागरु । भरला अस ेअदतदुस्तरु ।
त्याचा उतरावया पलैपारु । होय त ां तारूां मदुनराया ॥ ९२ ॥ याचें सकळ जळ क्षार । माजीं सावजें अदनवार ।
एकएकें चराचर । दगदळलें साचार दनजशदिां ॥ ९३ ॥ लाटाांवरी अचाट लाटा । मोहादचया अदतदुि दटा ।
आिळती अदववकेतटा । ियैा ददचया काांठा पादडत ॥ ९४ ॥ अहां कुवावो वाजताां थोरु । अविादच खवळे सागरु । मी माझदेन गजरें िोरु । अदतदुि दरु गज दत ॥ ८५ ॥ नाना वासनाांचा वळसा । पाह ेपाां भांवताहे कैसा । यथे तरावया दिांवसा । नव् ेसहसा सरुनराां ॥ ९६ ॥ क्रोिाचें प्रबळ भरतें । भरी िषेादचया तदरयाांतें ।
अस यादतरस्काराांची तथेें । दचडाणी उत ेअदनवार ॥ ९७ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ १२ दिनाांक २६/०४/२०१५
कामपव दताचीं दशखरें । दवषमें भासती अपारें । आश ेइचे्छचीं वरी थोरें । झाडें दवषयाांकुरें वाढलीं ॥ ९८ ॥
सांकल्पदवकल्पाांच ेमीन । दन ांिचे्या गा ससुरी िारुण । ब्रह्मिेषाच ेनक्र प ण द । सागरीं जाण तळपती ॥ ९९ ॥ एवढाही हा भवसागरु । शोदषताां त ां अगस्ती साचारु ।
तझुदेन भवाब्धीपलैपारु । पावों हा दनिा दरु जाहला आम्हाां ॥ १०० ॥ याचा दवश्वतोभय हेलावा । तो आम्हाां न बािी तमुच्या गा कणवा ।
अप्रयासें नारििवेा । मरणाण दवा मज तारीं ॥ १०१ ॥ पायी उतरून भवसागरु । साक्षात पावें परपारु ।
ऐसा भागवतिमददवचारु । तो दनजदनिा दरु प्रबोिीं ॥ १०२ ॥ ऐकोदन वसिुवेाची उिी । नारि सखुावला दचतीं ।
तोदच अदभप्रावो परीदक्षती । शकु स्वमखुें दस्थदत साांगत ॥ १०३ ॥ श्रीशकु उवाच ।
राजन एवां कृतप्रश्नो वसिुवेने िीमता । प्रीतस्तमाह िवेदष दः हरःे सांस्मादरतो गणुःै ॥ १० ॥
साांगताां वसिुवेाचा प्रश्न । श्रीशकु जाहला स्वानांिप ण द । नारदु वोळला चतैन्यिन । दचत्सखुजीवन ममुकु्षाां ॥ १०४ ॥ श्रीशकु म्हण ेनरिवेा । भावो मीनला नारिाच्या गा भावा ।
ऐकोदन प्रश्नसहुावा । तो म्हण ेवसिुवेा िन्य वाणी ॥ १०५ ॥ पदरसताां हा तझुा प्रश्न । दचत्सखुें प्रगटे नारायण ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ १३ दिनाांक २६/०४/२०१५
ऐसें बोलताां नारि जाण । स्वानांिें प ण द वोसांडला ॥ १०६ ॥ रोमाांच उचलले अांगीं । स्विे िाटला सवाांगीं ।
आनांिाश्र ुचादलले वगेीं । स्वानांिरांगीं डुल्लत ु॥ १०७ ॥ सप्रमे मीनदलया श्रोता । जैं प ण द सखुावनेा विा ।
तैं तो जाणावा अविा दरता । कथासारामतृा चवी नणे े॥ १०८ ॥ ऐकताां वसिुवेाचा प्रश्न । नारि सखुाव ेप ण द ।
मग स्वानांिदगरा गजोन । काय आपण बोलत ॥ १०९ ॥ श्रीनारि उवाच ।
सम्क एतत व्यवदसतां भवता सात्वतष दभ । यत्पचृ्छस ेभागवतान िमाांस्त्वां दवश्वभावनान ॥ ११ ॥ नारि म्हण ेसात्वत श्रषे्ठा । वसिुवेा परमाथ द दनष्ठा ।
िन्य िन्य तझुी उत्कां ठा । त ां भावाथी मोठा भागवतिमी ॥ ११० ॥ ज्याचदेन िमा दच ेप्रश्नोत्तरें । हें दवश्व अविेंदच उद्धर े।
हें दवचादरलें तवुाां बरें । दनजदनिा दरें श्रीकृष्णजनका ॥ १११ ॥ तझुदेन प्रश्नोत्तरें जाण । सािक दनस्तरती सांप ण द ।
सािकाांचें नवल कोण । महापापी पावन यणेें होती ॥ ११२ ॥ श्रतुोऽनपुदठतो ध्यात आदृतो वानमुोदितः ।
सद्यः पनुादत सद्धमो िवेदवश्वदु्रहोऽदप दह ॥ १२ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ १४ दिनाांक २६/०४/२०१५
भागवतिमा दचदेन गणुें । एक उद्धरती श्रवणें । एक तरती पठणें । एक दनस्तरती ध्यानें सांसारपाश ॥ ११३ ॥
एक श्रोतयाां वियाांतें । िखेोदन सखुावती दनजदचत्तें । सि भावें भलें म्हणती त्याांतें । तहेी तरती यथेें भागवतिमें ॥ ११४ ॥
हें नवल नव् ेभागवतिमा द । जो काां िवेद्रोही दुरात्मा । अथवा दवश्वद्रोही दुष्टात्मा । तोही तर ेहा मदहमा भगवतिमी ॥ ११५
॥ हृियीं िदरताां भागवतिमद । अकम्ादचें दनि दळी कम द ।
अिम्ादचें दनि दळी िम द । ि ेउत्तमोत्तमपिप्राप्ती ॥ ११६ ॥ जथे दरगाले भागवतिमद । तथे दनि दळे कमा दकम ददवकमद । दन ांिा िषे क्रोि अिमद । अदवद्यचेें नाम उरों निेी ॥ ११७ ॥ त ेभागवतिमी अत्यािर । श्रद्धनेें केला प्रश्न तवुाां थोर । दनजभाग्यें त ां अदत उिार । परम पदवत्र वसिुवेा ॥ ११८ ॥
तझुें वान ां पदवत्रपण । तरी पोटा आला श्रीकृष्ण । जयाचदेन नामें आम्ही जाण । परम पावन जगिांद्य ॥ ११९ ॥
तो स्वयें श्रीकृष्णनाथ । दनत्य वस ेतदुझयाां िराांत । तदुझया ऐसा भाग्यवांत । न दिस ेयथे मज पाहताां ॥ १२० ॥ वसिुवे तदुझया नामताां । "वासिुवे" म्हणती अनांता ।
तें वासिुवे नाम स्मरताां । परमपावनता जगिांद्याां ॥ १२१ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ १५ दिनाांक २६/०४/२०१५
त्वया परमकल्याणः पणु्यश्रवणकीत दनः । स्मादरतो भगवानद्य िवेो नारायणो मम ॥ १३ ॥
ज्याचदेन श्रवणें वाढ ेपणु्य । ज्यचदेन नामें झड ेभवबांिन । तो सद्य स्मरदवला तवुाां नारायण । तझुी वाचा कल्याण वसिुवेा ॥
१२२ ॥ तझुा आदज ऐकताांदच प्रश्न । प ण द प्रगटला नारायण ।
मज तझुा हा उपकार प ण द । त ां परम कल्याण वसिुवेा ॥ १२३ ॥ आशांका : ऐकोदन नारिाचें वचन । झणें दवकल्प िरील मन ।
यासी पवुीं होतें दवस्मरण । आताां जाहलें स्मरण वसिुवेप्रश्नें ॥ १२४ ॥
ज्याांची ऐसी दवकल्पयिुी । त ेजाणाव ेदनजात्मिाती । तहेी अथींची उपपत्ती । ऐक दनदितीं शकु साांग े॥ १२५ ॥ अदि कुां डामाजीं स्वयांभ अस े। तो ितृाविानें अदत प्रकाश े। तवेीं सप्रमे प्रश्नवशें । सखु उल्लास ेमिुाांचें ॥ १२६ ॥
सप्रमे भावाथ ेमीनला श्रोता । मिुही उल्हासें साांग ेकथा । तथेील सखुाची सखुस्वादुता । जाण ेजाणता सवम द ॥ १२७ ॥ यालागीं मिु ममुकु्ष ुदवषयी जन । भागवतिमें दनवती सांप ण द । तोदच वसिुवेें केला प्रश्न । तणेें नारि प ण द सखुावला ॥ १२८ ॥
ज ेकाां प व दपरांपरागत । जीण द भागवतिमद यथे । साांगावया नारिमदुन दनदित । उपपादित इदतहास ु॥ १२९ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ १६ दिनाांक २६/०४/२०१५
अत्राप्यिुाहरदि इमां इदतहासां परुातनम । आषदभाणाां च सांवािां दविहेस्य महात्मनः ॥ १४ ॥ यचे अथीं दविहेाचा प्रश्न । सांवािती आष दभ नवजण ।
त ेभागवतिमद जीण द । इदतहास सांप ण द साांगने ऐक ॥ १३० ॥ आषदभ कोण म्हणसी मळुीं । त्याांची साांगने वांशावळी ।
जन्म जयाांचा सकुुळीं । नवामाजीं जाहली ब्रह्मदनष्ठा ॥ १३१ ॥ दप्रयव्रतो नाम सतुो मनोः स्वायम्भवुस्य यः ।
तस्यािीध्रस्ततो नादभः ऋषभस्तत्सतुः स्मतृः ॥ १५ ॥ स्वायांभ ुमन चा सतु ु। जाण नामें 'दप्रयव्रत'ु ।
त्याचा 'आिीध्र' दवख्यात ु। 'नाभी' त्याचा सतु ुस य दवांशीं ॥ १३२ ॥ त्या नाभीपास दन ज्ञानदवलास ु। 'ऋषभ' जन्मला वासिुवेाांश ु। मोक्षिमा दचा प्रकाश ु। जगीं सावकाश ुदवस्तादरला ॥ १३३ ॥
तमाहुवा दसिुवेाांशां मोक्षिमददववक्षया । अवतीणां सतुशतां तस्यासीि ब्रह्मपारगम ॥ १६ ॥ ऋषभ वासिुवेाचा अांश ु। य ेलोकीं मोक्षिमददवश्वास ु। प्रवता दवया जगिीश ु। हा अांशाांश ुअवतार ॥ १३४ ॥ त्याचें पांचमस्कां िीं चदरत्र । साांदगतलें सदवस्तर । त्यासी जाहले शत पतु्र । विेशात्रसांपन्न ॥ १३५ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ १७ दिनाांक २६/०४/२०१५
त्याांहीमाजीं ज्यषे्ठ पतु्र । अदतशयें परम पदवत्र । ऐक त्याच ेचदरत्र । अदतदवदचत्र साांगने ॥ १३६ ॥
तषेाां व ैभरतो ज्यषे्ठो नारायणपरायणः । दवख्यातां वष दमतेि यन्नाम्ना भारतमि भतुम ॥ १७ ॥ जो ज्यषे्ठपतु्र 'भरत' जाण । तो नारायणपरायण ।
अध्यादप 'भरतवष द' उच्चारण । त्याचदेन नाांवें जाण दवख्यात ॥ १३७ ॥
जो मनसा-वाचा-कमदणा । अखांड भज ेनारायणा । असताांही राज्यिमीं जाणा । जो आत्मखणुा न चकेु ॥ १३८ ॥
जवेीं मागीं चालताां । पा उलें वक्रें ही टादकता । िवैवशें अडखळुताां । आश्रयो तत्त्वताां भ दमचादच ॥ १३९ ॥
तवेींदच तयासी असताां । राज्यिमद चादळताां । यथोदचत कमद आचदरताां । दनजीं दनजात्मता पालटेना ॥ १४० ॥ या नाव बोदलज े'अखांडदस्थती' । ज ेपालटेना कल्पाांती । जथे असताां सखुी होती । पनुरावदृत्त असनेा ॥ १४१ ॥ ऐसें करी सिाचरण । आदण नारायणपरायण ।
आ ईक त्याचेंही व्याख्यान । दवशि करूदन साांगने ॥ १४२ ॥ नराांचा समिुाय गहन । त्यासी 'नार' म्हणती जाण ।
त्याचें 'अयन' म्हणज ेस्थान । म्हणौदन म्हणती 'नारायण' आत्मयासी ॥ १४३ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ १८ दिनाांक २६/०४/२०१५
त्याच्या गा ठायीं परायण । म्हदणज ेअनन्यत्वें शरण । दनवट दनयाां आपलुें अहांपण । ति रूपें जाण रादहला ॥ १४४ ॥
ऐसा तो ऋषभाचा पतु्र । जयासी नाांव 'भरत' । ज्याच्या गा नामाची कीदत द दवदचत्र । परम पदवत्र जगामाजीं ॥ १४५ ॥ तो भरत ुरादहला ह ेभ दमकेसी । म्हणौदन 'भरतवष द' म्हणती यादस । सकळ कमा दरांभीं कदरताां सांकल्पासी । ज्यादचया नामासी स्मरतादत ॥
१४६ ॥ ऐसा आत्माराम जर् ही झाला । तर् ही दवषयसांग नव् ेभला ।
यालागीं त्याचा वतृ्ताांत ुपदुढला । साांगने सकळाां आ इकें ॥ १४७ ॥ नामें ख्याती केली उिांड । यालागीं त्यातें म्हणती 'भरतखांड' । आणीकही प्रताप प्रचांड । त्याचा दवतांड तो ऐका ॥ १४८ ॥
स भिुभोगाां त्यक्त्वमेाां दनग दतस्तपसा हदरम । उपासीनस्तत्पिवीं लेभ ेव ैजन्मदभदस्त्रदभः ॥ १८ ॥
तणेें दिग्मांडल दजांदतलें । समदु्रवलयाांदकत राज्य केलें । नानादवि भोग भोदगले । ज ेनाहीं िदेखले सरुवरीं ॥ १४९ ॥
अनकु ळ दस्त्रया पतु्र । अनकु ळ मांत्री पदवत्र । अनकु ळ राज्य सवदत्र । त ेत्यादगले दवदचत्र नानाभोग ॥ १५० ॥ ऐस ेभोग भोदगदलयापाठीं । साांड दन वलयाांदकत राज्यसषृ्टी । स्वयें दनिाला जगजठेी । स्वदहतदृष्टी हदरभजनीं ॥ १५१ ॥ ज ेराज्यवभैव भोदगती । त्याांसी किा नव् ेगा दवरिी ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ १९ दिनाांक २६/०४/२०१५
भरतें केली नवलख्याती । सदेवला श्रीपती भोगत्यागें ॥ १५२ ॥ तों नणेेंदच जन्में जाण । हो आवा मोक्षासी आरोहण ।
परी जाहलें जन्माांतरकारण । तेंही दवांिाण साांगने ॥ १५३ ॥ सांदनदहतप्रस तकाळीं । मगृी जळ प्रादशताां जळीं ।
ऐकोदन पांचाननाची आरोळी । उडाली तत्काळीं अदतसत्राणें ॥ १५४ ॥
िाकें गभ ुद दतचा पडताां जळीं । भरत स्नान करी त ेकाळीं । िखेोदन कृपाळु कळवळी । काढी तत्काळी ियाळुत्वें ॥ १५५ ॥
मगृी न यदेच परतोन । मातहृीन हें अदतिीन । भरत पाळी भ तियनेें । मगृममता प ण द वाढली ॥ १५६ ॥ स्नान सांध्या अनषु्ठान । कदरताां मगृ आठव ेक्षणक्षण । आरांदभल्या जपध्यान । मगृमय मन भरताचें ॥ १५७ ॥ आसनीं भोजनीं शयनीं । मगृ आठव ेक्षणक्षणीं ।
मगृ न िखेताां नयनी । उठे गजबजोदन ध्यानत्यागें ॥ १५८ ॥ ममता बसैली मगृापाशीं । मगृ वना गलेा स्वइच्छेंसीं ।
त्याचा खदेु कदरताां भरतासी । काळ आकषी िहेातें ।१५९ ॥ यालागी साचदच जाण । ममतपेाशीं अस ेमरण ।
जो दनम दम सांप ण द । त्यादस जन्ममरण स्पशनेा ॥ १६० ॥ भरत तदपया थोर अांगें । तथे काळ कैसदेन दरि े।
ममतासांिी पाहोदन वगेें । मतृ्य ुतद्योगें पावला ॥ १६१ ॥ िहेासी यतेाां मरण । भरतासी मगृाचें ध्यान ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ २० दिनाांक २६/०४/२०१५
तणेें मगृजन्म पाव ेआपण । जन्माांतरकारण जाहलें ऐसें ॥ १६२ ॥ कृपनेें केला जो सांग ु। तोदच योदगयाां योगभांग ु। यालागीं जो दनःसांग ु। तो अभांग ुसािक ॥ १६३ ॥
मगृाचदेन स्मरणें दनमाला । यालागीं तो मगृजन्म पावला । जो कृष्णस्मरणें दनमाला । तो कृष्णदुच जाला िहेाांतीं ॥ १६४ ॥
अांतकाळीं ज ेमती । तदेच प्रादणयाांसी जाण गती । यालागी श्रीकृष्ण दचत्तीं । अहोरातीं स्मरावा ॥ १६५ ॥
परी मगृिहेीं जाण । भरतासी श्रीकृष्णस्मरण । प वीं केलें जें अनषु्ठान । तें अांतर जाण किा निेी ॥ १६६ ॥ मागतुा दतसर ेजन्में पाहें । तो 'जडभरत' नाम लाह े। तथेें तो दनम दमत्वें राह े। तणेें होय दनत्यमिु ॥ १६७ ॥ बहुताां जन्मींची उणीवी । यणेें जन्में कादढली बरवी ।
दनजात्मा आकळोदन जीवीं । परब्रह्मपिवी पावला ॥ १६८ ॥ ऋषभपतु्रउत्पत्ती । शतबांि ुजाण दनदितीं ।
त्याांत ज्यषे्ठाची दस्थती । उरल्याांची गती त ेऐका ॥ १६९ ॥ तषेाां नव नविीप पतयोऽस्य समितः ।
कमदतन्त्रप्रणतेार एकाशीदतदििजातयः ॥ १९ ॥ नव नवखांडाांप्रती । त ेकेले खांडादिपती ।
एक्यायशीं जणाांची दस्थती । कम दमागी होती प्रवत दक ॥ १७० ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ २१ दिनाांक २६/०४/२०१५
उरले ज ेनव जण । सकळ भाग्याचें भ षण । ब्रह्मज्ञानाचें अदिष्ठान । ऐक लक्षण तयाांचें ॥ १७१ ॥
नवाभवन्महाभागा मनुयो ह्यथ दशांदसनः । श्रमणा वातरसना आत्मदवद्यादवशारिाः ॥ २० ॥ ऋषभकुळीं कुळिीप । स्नहेस त्रेंवीण ििेीप्य ।
नवही जण स्वयें सि रूप । सायजु्यस्वरूप प्रकाशक ॥ १७२ ॥ आत्माभ्यासीं पदरश्रम । करून दनरदसलें कमा दकम द ।
यालागीं त ेअकृताश्रम । दनजदनभ्रम स्वयें जाहले ॥ १७३ ॥ शाब्दबोिें सिोदित । ब्रह्मज्ञानपारांगत ।
दशष्प्रबोिीं समथ द । परमाि भतु अदतिक्ष ॥ १७४ ॥ त ेब्रह्मदवद्यचेें चालतें दडांब । त्याांच ेअववे त ेब्रह्मकोंब । ह ेदवद्यचेें प ण ददबांब । स्वयें स्वयांभ परब्रह्म ॥ १७५ ॥ िशदिशा एक दच िोरा । भरूदन पाांिरुणें मनुीश्वरा ।
वारा वळ न कडिोरा । बाांदिला परुा ग्रांथीरूप ॥ १७६ ॥ आकाशाच्या गा ठायीं । अांबरत्व केलें दतहीं ।
त ेदचिांबर पाहीं । एकदच नवाांही पाांिरूण ॥ १७७ ॥ प्राणापान वळ दन िोन्ही । गाांठी केली नाभीच्या गा ठायीं ।
तांव जीवग्रांथी सटुली पाहीं । तेंदच नवाांही ब्रह्मस त्र ॥ १७८ ॥ ऐस ेपरब्रह्मवभैवें । दनडारले दनजानभुवें ।
त्याांचीं साांगने मी नाांवें । यथागौरवें तें ऐक ॥ १७९ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ २२ दिनाांक २६/०४/२०१५
ज्याांच ेनाम ऐकताां । काांपत काळ पळे मागतुा । सांसार निुवी माथा । नाम स्मरताां जयाांचें ॥ १८० ॥ त्याांदचया नामाांची कीती । आ ईक साांगने परीदक्षती ।
ज्याांचदेन नामें आतडु ेमिुी । जाण दनदितीं भादवकाां ॥ १८१ ॥ कदवहददररिरीक्षः प्रबदु्धः दपप्पलायनः ।
आदवहोत्रोऽथ दु्रदमलिमसः करभाजनः ॥ २१ ॥ कदव हदर अांतदरक्ष । प्रबदु्ध दपप्पलायन िखे ।
आदवहोत्र दु्रदमल सटुांक । चमस दनिोष करभाजन ॥ १८२ ॥ एवां नवही नाांवें जाण । याांचें कदरताां नामस्मरण ।
सकळ पापा दनि दळण । ह ेमदहमा प ण द तयाांची ॥ १८३ ॥ त्याांची परमहांसदस्थती । साांगने मी तजुप्रती ।
ज्याांचदेन पावन होय दक्षती । त्या या नव म ती पणु्य प ज्य ॥ १८४ ॥ एत ेत भगवि रूपां दवश्वां सिसिात्मकम ।
आत्मनोऽव्यदतरेकेण पश्यिो व्यचरन्महीम ॥ २२ ॥ त ेवगेळे दिसती नवाांक । परी भगवि रूपें अवि ेएक ।
सांतासांत जन अनके । आपणाांसगट िखे एकत्वें पाहती ॥ १८५ ॥ त्याांसी तांव असांतता । उरली नाहीं सव दथा ।
सांत म्हणावया परुता । भदेु न य ेहाता दचन्मयत्वें ॥ १८६ ॥ जग पदरप ण द भगवांतें । आपण वगेळा नरुे तथेें ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ २३ दिनाांक २६/०४/२०१५
तांव भगवि रूप समस्तें । भ तें महाभ तें स्वयें िखे े॥ १८७ ॥ हेंही िखेतें िखेणें । तेंही स्वयें आपण होणें ।
होणें न होणें यणेें जाणें । हीं दगळ दन लक्षणें दवचरती मही ॥ १८८ ॥ अव्याहतषे्टगतयः सरुदसद्धसाध्य । गन्धवदयक्षनरदकन्नर नागलोकान । मिुािरदि मदुनचारणभ तनाथ ।
दवद्यािरदिजगवाां भवुनादन कामम ॥ २३ ॥ वकुैां ठ कैलास सरुदसद्धस्थानें । सप्तपाताळादि गमनें ।
एवां श्लोकोि चविा भवुनें । स्वइच्छा दवचरणें कामनारदहत ॥ १८९ ॥
त्याांसी जीवीं नाहीं दवषयासिी । यालागीं ख ुांटेना त्याांची गती । इच्छामात्रें गमनशिी । सखुें दवचरती दनष्काम ॥ १९० ॥
त एकिा दनमःे सत्रां उपजग्मयु ददृच्छया । दवतायमानमदृषदभः अजनाभ ेमहात्मनः ॥ २४ ॥ जथेें मनाचा प्रवशे ुनाहीं । त्याांची पायवाट त ेठायीं ।
ऐस ेस्वइच्छा दवचरताां मही । आले त ेपाहीं कम दभ मीसी ॥ १९१ ॥ मही दवचरताां दवतांड । पातले 'अजनाभ' खांड ।
तांव दविहेाचा याग प्रचांड । मीनले उिांड ऋषीश्वर ॥ १९२ ॥ याग विेोिदविी दनका । कुां डमांडप वदेिका ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ २४ दिनाांक २६/०४/२०१५
आवो सािोदन नटेका । दविानपीदठका अदतशदु्ध ॥ १९३ ॥ स्रकु -स्रवुा-दत्रसांिानें । दवस्तरूदन पदरस्तरणें ।
अखांड वसिुारा िांडाप्रमाणें । ऋदषमांडणें होम कदरती ॥ १९४ ॥ होम होताां सांप ण द । प णा दहुतीसमयीं जाण ।
यतेाां िदेखले नवही जण । ििेीप्यमान दनजतजेें ॥ १९५ ॥ तान दृष्ट्वा स य दसङ्काशात महाभागवतान नपृ । यजमानोऽियो दवप्राः सव द एवोपतदस्थरे ॥ २५ ॥ अदमत स या ददचया कोटी । हारपती नखतजेाांगषु्टीं ।
तो भगवांत दजांहीं िदरला पोटीं । त्याांची तजेाची गोष्टी अलोदलक ॥ १९६ ॥
त्याांदचया अांगप्रभा । स य द लोपताह ेउभा । दजांहीं प्रभसेी आदणली शोभा । चतैन्यगाभा साकार ॥ १९७ ॥
त ेभगवि भाांववभैव । भगवांताचें दनजगौरव । भिीच ेभाग ज ेनव । त ेह ेजाण सव द म दत दमांत ॥ १९८ ॥ नवखांड पथृ्वीच ेअलांकार । नवदविीचें दनजसार ।
नवरत नाांचेंही दनजभाांडार । तें हे साकार नवही जण ॥ १९९ ॥ कीं त ेनवही नारायण । स्वयें प्रगटले आपण ।
नवही नदृसांह जाण । ििेीप्यमान पैं आले ॥ २०० ॥ आव्ादनले दतन्ही अिी । उभ ेठेले त्याांतें िखेोनी ।
त ेह ेभागवतीं िदेखले नयनीं । इतराांलागनुी दिसनेा ॥ २०१ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ २५ दिनाांक २६/०४/२०१५
यतेाां िखेोदन तजेोम ती । ऋदत्वज आचाय द उभ ेठाकती । सा उमा िाांव ेदविहेनपृती । स्वानांिवतृ्ती सन्मानी ॥ २०२ ॥
सवगे िाली लोटाांगण । मगुटु काढोदन आपण । मस्तकीं वांदूदनयाां चरण । प णा दिरें जाण आदणता झाला ॥ २०३ ॥
दविहेस्तानदभप्रते्य नारायणपरायणान । प्रीतः सम्प जयाां चके्र आसनस्थान्यथाहदतः ॥ २६ ॥ त्याांतें जाणोदन भगवत्पर । दविहेा आल्हाि थोर ।
त्याांच ेप जसेी अत्यािर । स्वयें सािर पैं झाला ॥ २०४ ॥ श्रद्धायिु चरणक्षालन । ि प िीप समुन चांिन ।
प जा मिपुकद दविान । केलें सांप ण द यथायोग्य ॥ २०५ ॥ तान रोचमानान स्वरुचा ब्रह्मपतु्रोपमान्नव । पप्रच्छ परमप्रीतः प्रश्रयावनतो नपृः ॥ २७ ॥
दनजाांगींच्या गा दनजप्रभा । अांगासी आदणली शोभा । काय ब्रह्मदवद्यचेा गाभा । शोभ ेनवप्रभा शोभायमान ॥ २०६ ॥
दनजहृियींचें ब्रह्मज्ञान । पदरपाकें प्रकाशलें प ण द । तेंदच दनजाांगा मांडण । इतर भ षण त्याां नाहीं ॥ २०७ ॥ मगुटु कुां डलें कां कण । म खा द अांगीं बाणलीं प ण द ।
त ेशोभा लोप दन म ख दपण । बाहेर सांप ण द प्रकाश े॥ २०८ ॥ तसै ेनव्ती ह ेज्ञानिन । ब्रह्मप ण दत्वें दवराजमान ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ २६ दिनाांक २६/०४/२०१५
तेंदच त्याांसी दनजाांगा मांडण । इतर भ षण त्याां नाहीं ॥ २०९ ॥ ब्रह्मानभुवें प ण दत्व प ण द । इांदद्रयिारा दवराजमान ।
तें त्याांसी दनजशाांदतभ षण । मगुटु कां कण तें तचु्छ ॥ २१० ॥ मागाां वाखादणले सनकादिक । त्याांसमान कीं अदिक ।
ऐसा दवचादरताां पदरपाक । त्याां याां वगेदळक दिसनेा ॥ २११ ॥ त्याांची याांची एक गती । त्याांची याांची एक दस्थती ।
त्याांची याांची एक शाांती । भदेु दनदितीं असनेा ॥ २१२ ॥ त्याांच्या गा ऐस ेहे सख ेबांि ु। त्याांच्या गा ऐसा समान बोि ु। त्याांच्या गा ऐसा हा अनवुादु । सव दथा भदेु असनेा ॥ २१३ ॥
त ेचौि ेह ेनवजण । अवघ्ाां एकदच ब्रह्मज्ञान । त्याांची याांची शाांती समान । हें दविहेासी प ण द कळ ां सरले ॥ २१४ ॥
ऐसें पदरप ण दत्व जाणोनी । राजा सखुाव ेदस्थदत िखेोनी । मग अदतदवनीत हो ऊनी । मदृु मांजळु वचनीं दवनवीत ॥ २१५ ॥
श्रीदविहे उवाच । मन्य ेभगवतः साक्षात पाष दिान वो मिदुिषः ।
दवष्णोभ दतादन लोकानाां पावनाय चरदि दह ॥ २८ ॥ साव दभौम चक्रवती । िहेीं असोदन दविहेदस्थती ।
तो जनकु आष दभाांप्रती । अदतप्रीतीं दवनदवत ु॥ २१६ ॥ त्याांच्या गा भटेीसवें उलथलें सखु । दविहेासी िहेेंवीण हदरख । तणेें हदरखेंकरूदनयाां िखे । प्रीतीप व दक दवनदवत ु॥ २१७ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ २७ दिनाांक २६/०४/२०१५
तमुचें सामर्थ्यद पाहताां यथे । तमु्हीं ईश्वररूप समस्त । िहेभावें तरी भगवि भि । जसै ेपाष दि हरीच े॥ २१८ ॥ िवेो आपलुा आपण भिु । ऐसा जो काां उपदनषिथ ुद ।
तो साच करूदन विेाथ ुद । दनजपरमाथ ुद अनभुवा ॥ २१९ ॥ 'दशव हो ऊदन दशव ुयदजज'े । हें लक्षण तमु्हाांसीच साज े।
यरेीं हे बोलदच बोदलज े। परी बोलत ेवोजें अथ द न लभ े॥ २२० ॥ दवष्णनुें सषृ्टीं जें जें स्रजणें । तें तें तमु्हीं पदवत्र करण े।
मही दवचरायाचीं कारणें । कृपाळ पण ेिीनोद्धारा ॥ २२१ ॥ तमु्ही दवचरा दवश्वकणवा । परी भटेी होय प्रादप्त तवे्ाां ।
आदज लािलों तमुची सवेा । उि भट िवैादथलों मी ॥ २२२ ॥ आदज माझें िन्य िवै । आदज माझ ेिन्य वभैव ।
आदज िन्य मी सवीं सव द । हें चरण अप व द पावलों ॥ २२३ ॥ दुलदभो मानषुो िहेो िदेहनाां क्षणभङ्गरुः ।
तत्रादप दुलदभां मन्य ेवकुैण्ठदप्रयिशदनम ॥ २९ ॥ सकल िहेाांमाजीं पहा हो । अदतदुलदभ मनषु्िहेो ।
त्यादचया प्राप्तीचा सांभवो । तो अदभप्रावो अदतदुग दम ॥ २२४ ॥ सकृुतदुषृ्कत समान समीं । तैं पादवज ेकम दभ मी ।
तेंदच जैं पड ेदवषमीं । तैं स्वग दगामी काां नरकीं ॥ २२५ ॥ समानकमीं नरिहे जोड े। तरी समस्ताां समबदुद्ध न िड े। त्याां समाांमाजीं दवषम गाढें । जणेें पड ेतें ऐका ॥ २२६ ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ २८ दिनाांक २६/०४/२०१५
पापाचा एकु महादचरा । पणु्यें जोखणीं चाराचरुा । समान आदलया तळुाभारा । यणेें जन्में नरा दृढ पापबदु्धी ॥ २२७ ॥
वाळ आदण सवुण द । जोदखताां झाल्याही समान । सोदनयालागीं वेंदचती िन । वाळ त ेजाण न ितेी फुकट ॥ २२८ ॥
एकाचें पणु्य अत्यांत थोर । पाप लहानसहान एकत्र । करूदन जोदखताां तळुाभार । समान साचार जैं होय ॥ २२९ ॥ ऐसदेन कमें ज ेजन्मती । त्याांसी पणु्यावरी अदतप्रीती । पणु्य पाप िोनी झडती । तैं दनत्यमदुि पादवज े॥ २३० ॥
ऐशा अदतस क्ष्म सांकटीं । मनषु्िहेीं होय भटेी । तथेेंही अदभमान अदत उठी । िन िारा दिठी दवषयाांच्या गा ॥ २३१ ॥
मनषु्िहेींचदेन आयषु्ें । दवषयीं सायास कदरती कैस े। अमतृ ि ेऊदन ि ेजसैें । तान्हें सावकाशें मगृजळ ॥ २३२ ॥
गांिव दनगरींचीं ठाणीं । ितेलीं ि ेऊदन दचांतामणी । तशैी लदटदकयालागीं आटणी । दवषयसािनीं नरिहेा ॥ २३३ ॥
तोड दन कल्पतरूां च ेउद्यान । सायासीं तें वाहोदन रान । तथेें साक्षपेें पदेरली जाण । आण दन आपण दवजया जशैीं ॥ २३४ ॥
तसैें नरिहेा य ेऊदन नराां । कदरती आयषु्ाचा मातरेा । प ण द व्यवसायो दशश्नोिराां । उपहास दनद्रा काां दन ांिा ॥ २३५ ॥
दनत्य प्रपांचाची कटकट । सिा दवषयाांची खटपट । किा आरादयल्या चोखट । स्वचे्छा सारीपाट खळेणें ॥ २३६ ॥
नाना दवनोि टवाळी । दनत्य दवषयाांची वाचाळी ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ २९ दिनाांक २६/०४/२०१५
त्यासी जपताां रामनामावळी । पड ेिाांतदखळी असांभाव्य ॥ २३७ ॥ िरा आली कामिने ु। िवदडती न पोसव ेम्हण न ु।
तवेीं श्रीरामनाम नचु्चारून ु। नाडला जन ुनरिहेीं ॥ २३८ ॥ कदरताां नरिहेीं अहांकार । तांव तो िहेदच क्षणभांगरु ।
िहेीं िहेवांता भाग्य थोर । जैं भगवत्पर भटेती ॥ २३९ ॥ ज्याांसी भगवि भिीची अदत गोडी । त्याांवरी भगवांताची आवडी । त्याांची भटेी तैं होय रोकडी । जैं पणु्याच्या गा कोडी दतष्ठती ॥ २४० ॥ ज्याांदचया आवडीच्या गा लोभा । भगवांत ुपालटें आला गभा द । िशावताराांची शोभा जाहली । पद्मनाभा ज्याांचदेन ॥ २४१ ॥
ऐस ेकृष्णकृपासमारांभ े। ज ेभगवांताच ेवालभ े। त्याांची भटेी तैंदच लाभ े। जैं भाग्यें सलुभें पैं होती ॥ २४२ ॥
दनष्कामता दनजदृष्टी । अनि पणु्यकोट्यनकुोटी । रोकड्या लाभती पाठोवाठीं । तैं होय भटेी हदरदप्रयाांची ॥ २४३ ॥
व्याघ्रदसांहाांच ेदूि जोड े। चांद्रामतृही हाता चढ े। परी हदरदप्रयाांची भटेी नातडु े। दुलदभ भाग्य गाढें मनषु्ाां ॥ २४४ ॥
व्याघ्रदसांहदुिासाठी । अदतसबळता जोड ेपषु्टी । परी जन्ममरणाांची तटुी । दुिासाठीं किा नव् े॥ २४५ ॥ म्हणती चांद्रामतृ जो आरोगी । तो होय दनत्य दनरोगी ।
मखु्य चांद्रदच क्षयरोगी । त्याचें अमतृ दनरोगी करी केवीं ॥ २४६ ॥ व्याघ्रदसांहदुग्िाच ेशिीं । प्राणी जैं अजरामर होती ।
तैं तणेें दुग्िें जयाांची उत्पत्ती । त ेकाां मरती व्याघ्रदसांह ॥ २४७ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ३० दिनाांक २६/०४/२०१५
जैं हदरभिाांची भटेी िड े। तैं न बािी सांसारसाांकडें । जन्ममरण सम ळीं उड े। त्याांची भटेी आतडु ेअदतभाग्यें ॥ २४८ ॥
आदज मी भाग्यें सभाग्य प ण द । लािलों तमुचें िश दन । तरी "आत्यांदतक क्षमे" कोण । तें कृपा करून मज साांगा ॥ २४९ ॥
अत आत्यदिकां क्षमेां पचृ्छामो भवतोऽनिाः । सांसारऽेदस्मन्क्षणािोऽदप सत्सङ्गः शवेदिनृ दणाम ॥ ३० ॥ म्हणों तमु्ही दनष्पाप दनम दळ । तांव तमुचदेन िशदनें तत्काळ ।
नासती सकळ कदलमळ । ऐस ेदनजदनम दळ तमु्ही सव द ॥ २५० ॥ स्नान केदलया गांगा । पदवत्र करी सकळ जगा ।
त ेगांगाही दनजपापभांगा । तमुच ेचरणसांगा वाांछीत ॥ २५१ ॥ तमुची िशदनसांग-दचि गांगा । अत्यांत िाटुगी माजीं जगा ।
िशदनमात्रें न ेभव भांगा । जन्ममरण पैं गा मग कैं च े॥ २५२ ॥ तथेें कायसा गांगचेा पदडपाडु । नाहीं तीथ दमदहमसेी पवाडु ।
तीथाां भविोष अविडु । त्याांचा करी दनवाडु दृदष्टसांगें ॥ २५३ ॥ ऐशी पदवत्रता प्रबळ । दृदष्ट उत्सांगी वाढवा सकळ ।
आदज झालों मी अदतदनम दळ । तमु्हीं िीनियाळ मीनलेदत ॥ २५४ ॥ ऐस ेपदवत्र आदण कृपाम दत द । भाग्यें लािलो ह ेसांगती ।
सत्सांगाची दनजख्याती । साांगता श्रदुत मौनावल्या ॥ २५५ ॥ ब्रह्म दनि दम द नणे ेदनजिमा द । सािमुखुें ब्रह्मत्व य ेब्रह्मा । त्या सत्सांगाचा मदहमा । अदतगदरमा दनरुपम ॥ २५६ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ३१ दिनाांक २६/०४/२०१५
सत्सांग म्हणों दनिीसमान । दनदि जोडल्या हारप ेजाण । सत्सांगाचें मदहमान । सािकाां सांप ण द सि रूप करी ॥ २५७ ॥
दनदि साांपडदलया साङ्ग । अत्यांत वाढ ेदवषयभोग । तसैा नव् ेजी सत्सांग । दनदव दषयें चाांग सखुिाता ॥ २५८ ॥
इांदद्रयाांवीण स्वानांदु । दवषयाांवीण परमान ांदु । ऐसा कदरती दनजबोि ु। अगाि सािदुनजमदहमा ॥ २५९ ॥
दनदमषाि द होता सत्सांग । तणेें सांगें होय भवभांग । यालागीं सत्सांगाचें भाग्य । सािक सभाग्य जाणती ॥ २६० ॥
सांतचरणीं ज्याांचा भावो । भावें तषु्टती सांत स्वयमवेो । सांतसदन्नदिमात्रें पहावो । सांसार वावो स्वयें होय ॥ २६१ ॥
नाना दवकार दवषयदविी । सांसारु सबळत्वें बािी । त्या सांसाराची अविी । जाण दत्रशदु्धी सत्सांग ॥ २६२ ॥ िीपादचय ेसांगप्राप्ती । दनःशषे कापरुत्वाची शाांती ।
तवेीं झादलया सत्सांगती । सांसारदनवदृत्त क्षणािें ॥ २६३ ॥ त ेतमुची सत्सांगती । भाग्यें पावलों अवदचतीं ।
"आत्यांदतक क्षमे" कैशा दरतीं । प्राणी पावती तें साांगा ॥ २६४ ॥ आत्यांदतक क्षमेाचें वण दन । जरी म्हणाल भागवतिमद । त्या िमा दचा अनकु्रम । साङ्ग सगुम साांगा जी ॥ २६५ ॥
िमा दन्भागवतान्ब्र त यदि नः श्रतुय ेक्षमम । यःै प्रसन्नः प्रपन्नाय िास्यत्यात्मानमप्यजः ॥ ३१ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ३२ दिनाांक २६/०४/२०१५
पदरसावया भागवतिमीं । श्रवणादिकारी असों जरी आम्ही । तरी कृपा करूदन तमु्हीं । साांगाव ेस्वामी सकळ िमद ॥ २६६ ॥
नवल या िमाांची ख्याती । सप्रमे आिदरताां दप्रती । तणेें तषु्टोदनयाां श्रीपती । ि ेसवेकाां हातीं आपदणया ॥ २६७ ॥ "अजन्मा" या नामाची ख्याती । विेशास्त्रीं दमरवी श्रीपती ।
तो भागवतिमा ददचया प्रीती । सोशी जन्मपांिी भिाांदचया ॥ २६८ ॥ एवां भागवतिमी जाण । जो कोणी अनन्य शरण ।
त्यासी तषु्टोदनयाां नारायण । दनजात्मता प ण द स्वयें िते ु॥ २६९ ॥ जी भागवतिमदश्रवणाथ द । मज अदिकारु जरी नसले यथे ।
तरी मी अनन्य शरणागत । आदण तमु्ही समस्त कृपाळ ॥ २७० ॥ भ तियचेें दनडारलेपण । तमुच्या गा ठायीं वोसांड ेप ण द । तमु्ही ियादनदि सांप ण द । िीनोद्धरण तमुचनेी ॥ २७१ ॥ जथे तमुची कृपा प ण द । तथे न राह ेजन्ममरण ।
सवा ददिकार सांप ण द । सहज आपण वोळांग े॥ २७२ ॥ तांव तमुच ेकृपपेरतें । आन सामर्थ्यद नाहीं यथेें ।
ऐसें जाणोदनयाां दनदितें । शरण तमु्हाांतें मी आलों ॥ २७३ ॥ कायसी ज्ञातपेणाची लाज । यथेें तमुच ेकृपें माझें काज । ऐसें दविहेें प्राथ ददन दिज । चरणरज वांदिलें ॥ २७४ ॥ ऐकोदन दविहेाचा नम्र प्रश्न । सांतोषले नवही जण ।
तेंदच श्रीमखुें नारि आपण । करी दनरूपण वसिुवेा ॥ २७५ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ३३ दिनाांक २६/०४/२०१५
श्रीनारि उवाच । एवां त ेदनदमना पषृ्टा वसिुवे महत्तमाः ।
प्रदतप ज्याब्रवुन्प्रीत्या ससिस्यदत्वदजां नपृम ॥ ३२ ॥ जो जगादच दस्थती गदत जाणता । जो हदरहराांचा पदढयांता । जो दनजात्मज्ञानें परुता । तो झाला बोलता नारदु ॥ २७६ ॥
नारि म्हण ेवसिुवेा । दविहेें प्रश्न केला बरवा । तणेें परमान ांदु तवे्ाां । त्या महानभुावाां उलथला ॥ २७७ ॥ सांतोषोदन नवही म ती । िन्य िन्य दविहेा म्हणती ।
ऋदत्वजही सािर परमाथीं । सिस्य श्रवणाथीं अदततत्पर ॥ २७८ ॥ ऐसें ि ेऊदन अनमुोिन । बोलत ेजाहले नवही जण । तदेच कथचेें दनजलक्षण । नव प्रश्न दविहेाच े॥ २७९ ॥ भागवतिमद भगवि भि । माया कैसी अस ेनाांित । दतचा तरणोपाव यथे । केवीं पावत अज्ञानी ॥ २८० ॥ यथे कैचें अस ेपरब्रह्म । कासया नाांव म्हदणज ेकमद ।
अवतारचदरत्रसांख्या परम । अभिाां अिमगदत कैशी ॥ २८१ ॥ कोण ेयगुीं कैसा िम द । साांगावा जी उत्तमोत्तम । ऐस ेनव प्रश्न परम । जनक सवमद पसुले ॥ २८२ ॥
ऐस ेदविहेाच ेप्रश्न । अनकु्रमें नवही जण । उत्तर ितेी आपण । तयाांत प्रथम प्रश्न कदव साांग े॥ २८३ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ३४ दिनाांक २६/०४/२०१५
श्रीकदवरुवाच । मन्यऽेकुतदिि भयमच्या गतुस्य पािाम्बजुोपासनमत्र दनत्यम । उदििबदु्धरेसिात्मभावात
दवश्वात्मना यत्र दनवत दत ेभीः ॥ ३३ ॥ रायें पदुशलें "आत्यदिक क्षमे" । तिथीं कदव ज्ञाता परम । तो आत्यांदतक क्षमेाचें वम द । भागवतिमद प्रदतपािी ॥ २८४ ॥
ऐक राया नवलपरी । आपलुा सांकल्प आपणा वरैी । िहेबदु्धी वाढव दन शरीरीं अदतदृढ करी भवभया ॥ २८५ ॥ जयापाशीं िहेबदु्धी । त्यासी सखु नाहीं दत्रशदु्धी । त ेबडुाले िांिसांिीं । आदिव्यादिमहाण दवीं ॥ २८६ ॥ ज ेिहेबदु्धीपाशीं । सकळ दुःखाांदचया राशी ।
महाभयाचीं भ तें चौपाशीं । अहदन दशीं झोंबती ॥ २८७ ॥ िहेबदु्धीदचया नरा । थोर दचांतचेा अडिरा ।
सांकल्पदवकल्पाांचा मारा । ममतािारा अदनवार ॥ २८८ ॥ िहेबदु्धीमाजीं सखु । अणमुात्र नाहीं िखे ।
सखु मादनती त ेमहाम ख द । दुःखजनक िहेबदु्धी ॥ २८९ ॥ िीपाच ेदमळणीपाशीं । केवळ दुःख पतांगासी ।
तरी आदलांग ां िाांव ेत्यासी । तवेीं दवषयाांसी िहेबदु्धी ॥ २९० ॥ ऐशी असांत िहेबदु्धी कुडी । वाढवी दवषयाांची गोडी ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ३५ दिनाांक २६/०४/२०१५
तथेें महाभयाची जोडी । जन्ममरणकोडी अदनवार ॥ २९१ ॥ एवढा अदनवार सांताप । िहेबदु्धीपाशीं महापाप ।
जाणोदन िरी जो अनतुाप । दवषयीं अल्प ग ुांतनेा ॥ २९२ ॥ िदरताां दवषयाांची गोडी । भोगाव्या जन्ममरणकोडी ।
यणेें भयें दवषय वोसांडी । इांदद्रयाांतें कोंडी अदतनमेें ॥ २९३ ॥ इांदद्रयें कोंदडताां न कोंडती । दवषय साांदडताां न साांडती ।
पढुतपढुती बाि ां यतेी । यालागी हदरभिी द्योदतली विेें ॥ २९४ ॥ इांदद्रयें कोंडावीं न लगती । सहजें राह ेदवषयासिी ।
एवढें सामर्थ्यद हदरभिीं । जाण दनदितीं नपृवया द । २९५ ॥ योगी इांदद्रयें कोंडती । तीं भि लादवती भगवि भिीं ।
योगी दवषय ज ेत्यादगतीं । त ेभि अदप दती भगवांतीं ॥ २९६ ॥ योगी दवषय त्यादगती । त्यादगताां िहे दुःखी होती । भि भगवांतीं अदप दती । तणेें होती दनत्यमिु ॥ २९७ ॥ हें नव् ेम्हणती दवकल्पक । यादचलागीं यथेें िखे ।
"कायने वाचा" हा श्लोक । अप दणद्योतक बोदलजलेा ॥ २९८ ॥ िारा सतु गहृ प्राण । कराव ेभगवांतासी अप दण ।
ह ेभागवतिमद प ण द । मखु्यत्वें "भजन" याां नाांव ॥ २९९ ॥ अकराही इांदद्रयवतृ्ती । कैशा लावाव्या भगवि भिी । ऐक राया तजुप्रती । सांक्षपेदस्थती साांगने ॥ ३०० ॥
'मनें' करावें हरीचें ध्यान । 'श्रवणें' करावें कीदत दश्रवण । 'दजव्नेें' कराव ेनामस्मरण । हदरदकत दन अहदन दशी ॥ ३०१ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ३६ दिनाांक २६/०४/२०१५
'करीं' कराव ेहदरप जन । 'चरणीं' िवेालयगमन । 'घ्राणी' तलुसी आमोिग्रहण । दजांहीं हदरचरण प दजले ॥ ३०२ ॥
दनत्य दनमा दल्य दमरव ेदशरीं । चरणतीथें अभ्यांतरीं हदरप्रसाि ज्याच ेउिरीं । त्या िखेोदन दूरी भवभय पळें ॥ ३०३ ॥
वाढतदेन सि भावें जाण । चढतदेन प्रमेें प ण द । अखांड ज्यासी श्रीकृष्णभजन । त्यासी भवबांिन असनेा ॥ ३०४ ॥
सकल भयाांमाजीं थोर । भवभय अदतदुि दर । तेंही हदरभिीसमोर । बापडुें दकां कर केवीं राहे ॥ ३०५ ॥ कदरताां रामकृष्णस्मरण । उठोदन पळे जन्ममरण ।
तथेें भवभयाचें तोंड कोण । ियै दपण िरावया ॥ ३०६ ॥ जथेें हदरचरणभजनप्रीती । तथेें भवभयाची दनवतृ्ती ।
परम दनभ दय भगवि भिी । आमचु्या गा मतीं दनजदनियो ॥ ३०७ ॥ कृतदनियो आमचुा जाण । यथेें साक्षी विे-शास्त्र-परुाण । सवा दत्मना भगवि भजन । दनभ दयस्थान सवाांसी ॥ ३०८ ॥ असो विे शास्त्र परुाण । स्वमखुें बोदलला श्रीकृष्ण ।
मी सव दथा भादि आिीन । भदिप्रिान भगविा क्य ॥ ३०९ ॥ उभव दनयाां चारी बाह्या । दनजात्मप्राप्तीच्या गा उपाया ।
"भक्त्याहमकेया ग्राह्यः" । बोदलला लवलाह्याां श्रीकृष्ण ॥ ३१० ॥ य ेव ैभगवता प्रोिा उपाया ह्यात्मलब्धय े।
अञ्जः प ुांसामदवदुषाां दवदद्ध भागवतान दह तान ॥ ३४ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ३७ दिनाांक २६/०४/२०१५
न कदरताां विेशात्रव्यतु्पदत्त । ऐदशया अज्ञानाां दनजात्मप्राप्ती । सगुम जोड ेब्रह्मदस्थती । यालागीं हदरभिी प्रकादशली िवेें ॥ ३११ ॥
न कदरताां विेशात्रपठण । जड म ढ म्हणाल तरले कोण । उन्मत्तगजेंद्रउद्धरण । गभ दसांरक्षण पदरदक्षतीचें ॥ ३१२ ॥
अांबरीषगभ ददनवारण । करावया भिीच कारण । "अहां भिपरािीनः" । स्वमखुें नारायण बोदलला ॥ ३१३ ॥
वनचर वानर नणेों दकती । उद्धरले भगवि भिीं । अस्वलें तारावया दनदितीं । दववरीं जाांबवती भिीस्तव वदरली ॥ ३१४
॥ जाण पाां अदववकेी केवळ । गौळी गोिनें गोपाळ ।
तहेी उद्धदरले सकळ । श्रीकृष्णसख ेप्रबळ अनन्यप्रीतीं ॥ ३१५ ॥ शास्त्रदवरुद्ध अदववकेदस्थती । जारभावें श्रीकृष्णप्रीती ।
गोपी उद्धदरल्या नणेों दकती । अनन्यभदिसख्यत्वें ॥ ३१६ ॥ न कदरताां नाना व्यतु्पत्ती । सगुमोपायें ब्रह्मप्राप्ती ।
अबळें तारावया दनदितीं । भगवांतें दनजभदि प्रगट केली ॥ ३१७ ॥ तें हें राया भगवत जाण । मखु्यत्वें भदिप्रिान ।
भावें कदरताां भगवि भजन । अज्ञान जन उद्धरती ॥ ३१८ ॥ हें भागवत नव्े नव् े। अज्ञानालागीं दनजपव्े ।
भवादब्ध तरावया भजनभावें । महानाव िवेें दनमा दण केली ॥ ३१९ ॥ भागवताच ेमहानाव े। ज ेदरिाले भजनभावें ।
त्याांसी भवभयाच ेहेलाव े। भजनस्वभावें न लागती ॥ ३२० ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ३८ दिनाांक २६/०४/२०१५
स्त्रीश द्रादि आिव े। िालूदनयाां य ेनाव े। एकेच खपे ेस्वयें न्याव े। भजनभावें परतीरा ॥ ३२१ ॥ ज ेआवदलताां भावबळें । तोडी कमा दकम दक्र रजळें ।
स्वबोिाचदेन पादणढाळें । कादढती एक वळेे दनजात्मतीरा ॥ ३२२ ॥ वरैाग्याच ेदनजनावाड े। अढळ बसले चहूांकड े।
दवषयाांच ेआिळ रोकड े। चकुव दन िडपडु ेकादढती काांठा ॥ ३२३ ॥ सांदचतदक्रयमाणाांच्या गा लाटा । मोडोदन लादवती नीट वाटा । वेंच दन प्रारब्धाचा साांठा । दनजात्मतटा कादढती ॥ ३२४ ॥
तथे गरुुवचन साचोकारें । साांभादळत उणेंपरुें । भ तियचेदेन िोरें । दनजदनिा दरें वोदढती ॥ ३२५ ॥ तांव एकाएक एकसरीं । कादढली परात्परतीरीं ।
तांव प्रत्यावतृ्ती यरेझारी । आत्मसाक्षात्कारीं ख ुांटली ॥ ३२६ ॥ यथे िदरला परु ेभावो । तैं बडुणेंदच होय वावो ।
मग टाकावो जो ठावो । तो स्वयमवेो आपण होय ॥ ३२७ ॥ यथे पव्णयावीण तरणें । प्रयासेंवीण प्रादप्त िणेें ।
सखुोपायें ब्रह्म पावणें । यालागीं नारायणें प्रकादशली भिी ॥ ३२८ ॥
भागवतिमा ददचय ेदस्थती । बाळीं भोळीं भवादब्ध तरती । सखुोपायें ब्रह्मप्राप्ती । तदेच श्लोकाथीं दवशि साांग े॥ ३२९ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ३९ दिनाांक २६/०४/२०१५
यानास्थाय नरो राजन न प्रमाद्यते कदहिदचत । िावदन्नमील्य वा नते्र ेन स्खलेन्न पतदेिह ॥ ३५ ॥ जो श्रदुतस्मतृी नणेता । भावें भज ेभगवत्पथा ।
त्यासी दवदिदनषिेबािकता । स्वप्नींही सव दथा प्रमादु न िड े॥ ३३० ॥ सि भावेंसीं सप्रमे । आचदरताां भागवतिमद ।
बाि ां न शके कमा दकम द । भावें परुुषोत्तम सांतषु्ट सिा ॥ ३३१ ॥ श्रदुतस्मदृत ह ेिोन्ही डोळे । यणेेंवीण ज ेआांिळे ।
तहेी हदरभजनी िाांवताां भावबळें । पड ेना आडखळुें सप्रमेयोगें ॥ ३३२ ॥
प्रमेेंवीण श्रदुतस्मदृतज्ञान । प्रमेेंवीण ध्यानप जन । प्रमेेंवीण श्रवण कीत दन । वथृा जाण नपृनाथा ॥ ३३३ ॥ माता िखेोदन प्रमेभावें । बालक डोळे झाांक दन िाांव े। तें िाांवसेवें झेंपाव े। अदत सि भाव ेदनजमाता ॥ ३३४ ॥ जसैा सप्रमे जो भज ेभिु । त्या भजनासवें भगवांत ु।
भलुला चाले स्वानांियिुु । स्वयें साांभादळत ुपिोपिीं ॥ ३३५ ॥ ऐस ेआचदरताां भागवतिमद । बाि ां न शके कमा दकम द ।
कमा दसी ज्याची आज्ञा नमे । तो परुुषोत्तम भजनामाजीं ॥ ३३६ ॥ ऐसा भागवतिमें गोदवांदु । तषु्टला चाले स्वानांिकां दु ।
तथेें केवीं दरि ेदवदिदनषिे ु। भिाां प्रमादु न किा बािी ॥ ३३७ ॥ जवेीं काां स्वामीदचया बाळा । अवरोि ुन करव ेिारपाळा ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ४० दिनाांक २६/०४/२०१५
तवेीं भागवतिमदभजनशीळा । कमा दग दळा बाि ां न शके ॥ ३३८ ॥ ज्यासी भगवि भजनीं दवश्वास ु। दवदिदनषिे ुत्याचा िास ु।
िखेोदन दनजभजनदवलास ु। स्वयें जगदन्नवास ुसखुाव े॥ ३३९ ॥ भागवतिमें राह ेकम द । तांव तांव सखुाव ेपरुुषोत्तम ।
सप्रमेभिा बािी कम द । हा वथृा भ्रम भ्राांताांसी ॥ ३४० ॥ कमद करूां पाव ेप्रमादु । तांव प्रमािीं प्रगटे गोदवांदु ।
यलागीं दवदिदनषिे ु। न शकती बाि ां हदरभिाां ॥ ३४१ ॥ अजादमळा कम दबाि । यमपाशीं बाांदिताां सबुद्ध ।
तथेें प्रगटोदन गोदवांि । केला अदतशदु्ध नाममात्रें ॥ ३४२ ॥ स्विमद कम द हचे िोनी । दनजसत्ता भोयी करूनी ।
जो पहुड ेभजनसखुासनीं । तो पड ेतैं िांडणी स्विमद-कमाां ॥ २४३ ॥ भजनप्रतापसत्तलक्षणें । स्विमदकमाां ऐसें िांडणें ।
वणा दश्रमाांचा ठावो पसुणें । होळी करणें कमा दची ॥ ३४४ ॥ एवां भागवतिमें ज ेसवेक । स्विमदकम द त्याांचें रांक ।
तें राहों न शके त्याांसन्मखु । मा केवीं बािक हों शकेल ॥ ३४५ ॥ कैस ेकैस ेभागवतिमद । केवीं भगवांती अप ेकम द ।
अदतगहु्य उत्तमोत्तम । दनजभजनवमद ऐक राया ॥ ३४६ ॥ कायने वाचा मनसदेियवैा द
बदु्ध्यात्मना वानसुतृस्वभावात ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ४१ दिनाांक २६/०४/२०१५
करोदत यद्यत्सकलां परस्म ै नारायणायदेत समप दयते्तत ॥ ३६ ॥
हतेकु अथवा अहतेकु । वदैिक लौदकक स्वाभादवक । भगवांतीं अप ेसकदळक । या नाांव िखे "भागवतिमद" ॥ ३४७ ॥
उिकीं तरांग अदतचपळ । दजकड ेजाय दतकड ेजळ । तसैें भिाचें कम द सकळ । अप ेतत्काळ भगवांतीं ॥ ३४८ ॥
य ेश्लोकींचें व्याख्यान । पदहलें मानदसक अप दण । पाठीं इांदद्रयें बदुद्ध अदभमान । कादयक जाण श्लोकान्वयें ॥ ३४९ ॥
भागवतिमा दची दनजदस्थती । मन बदुद्ध दचत्त अहांकृती । आदिकरूदन इांदद्रयवतृ्ती । भगवांतीं अदप दती तें ऐक ॥ ३५० ॥
बाि ां न शके स्विमदकम द । ऐक राया त्याचें वम द । मनीं प्रगटला परुुषोत्तम । अदतदनःसीम दनजबोिें ॥ ३५१ ॥
म्हणोदन सांकल्पदवकल्प । अवि ेझाले भगवि रूप । यालागीं भि दनत्य दनष्पाप । सत्यसांकल्प हदरिास ॥ ३५२ ॥
जवेीं बदुद्धबळाांचा खळे । राजा प्रिान गजिळ । अवि ेकाष्ठदच केवळ । तवेीं सांकल्प सकळ भगवि रूप ॥ ३५३ ॥
जो जो सांपल्प कामी काम ु। तो तो होय आत्माराम ु। तथे भजनाचा सांभ्रम ु। अदतदनःसीम ुस्वयें वाढें ॥ ३५४ ॥
जागदृत सषुपु्ती स्वप्न । दतहीं अवस्थाां होय भजन । तथे अखांड अनसुांिान । दनजबोिें प ण द ठसावलें अांगीं ॥ ३५५ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ४२ दिनाांक २६/०४/२०१५
मना होताां समािान । समािानें अदिक भजन । प ण द बाणलें अनसु ांिान । ध्यये-ध्याता-ध्यान समरसें भज े॥ ३५६ ॥
त या द साक्षी उन्मनी । याही लादवल्या भगवि भजनीं । जांववरी अवस्थापणीं । आपआपणीं मकुल्या नाहीं ॥ ३५७ ॥ ऐसा भावनवेीण उपज ेभावो । तो तो तत्काळ होय िवेो ।
मग अप दणाचा नवलावो । न अदप दताां पहा हो स्वयें होय ॥ ३५८ ॥ स्वरूपें दमर्थ्या केलें स्वप्न । जागतृी सोलूदन कादढलें ज्ञान ।
दनवडोदन सषुदुप्तसखुसमािान । दतहींतें प ण द एकत्र केलें ॥ ३५९ ॥ तय ेस्वरूपीं सगळें मन । स्वयेंदच करी दनजात्माप दण ।
तथेींचें सखुसमािान । भि सज्ञान जाणती स्वयें ॥ ३६० ॥ यापरी मानदसक जाण । सहज स्वरूपीं होय अप दण ।
आताां इांदद्रयाांचें समप दण । होय तें लक्षण ऐक राया ॥ ३६१ ॥ िीप ुलादवज ेगहृाभीतरीं । तोदच प्रकाश ेगवाक्षिारीं ।
तवेीं मनीं प्रगटला श्रीहरी । तोदच इांदद्रयाांतरीं भजनानांदु ॥ ३६२ ॥ तदेच इांदद्रयव्यापार । साांदगजती सदवस्तर ।
स्वाभादवक इांदद्रयव्यवहार । भजनतत्पर परब्रह्मीं ॥ ३६३ ॥ जांव दृदष्ट िखे ेदृश्यातें । तांव िवेोदच दिस ेतथेें ।
यापरी दृश्यिशदनातें । अपी भजनसत्त ेदृष्टीचा दवषयो ॥ ३६४ ॥ दृश्य द्रष्टा आदण दृष्टी । िखेताां दतन्ही एकवटी ।
सहजें ब्रह्माप दण त ेदृष्टी । भि जगजठेी यापरी अपी ॥ ३६५ ॥ दृश्य प्रकाशी दृश्यपणें । तेंदच दृष्टीमाजीं होय िखेणें ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ४३ दिनाांक २६/०४/२०१५
ऐसदेन अदभन्नपणें । िशदनाप दणें भजती भि ॥ ३६६ ॥ ह ेएकपणीं तीनही भाग । दतन्हीमाजीं एक अांग ।
ऐसें जें िखेणें चाांग । त्यादच अप दणें साङ्ग सहजें अपी ॥ ३६७ ॥ नाना पिाथ द प्राांजळे । नीच नव ेिखेती डोळे ।
परी अप दणाच ेसोहळे । दनजात्ममळेें अदप दती स्वयें ॥ ३६८ ॥ यापरी दृष्टीचें िश दन । भि कदरती ब्रह्माप दण ।
आताां श्रवणाचें अप दण । अपी तें लक्षण ऐक राया ॥ ३६९ ॥ जो बोलातें बोलदवता । तोदच श्रवणीं झाला श्रोता ।
तोच अथा दवबोि ुजाणता । तथेें ब्रह्माप दणता सहजेंदच ॥ ३७० ॥ शब्दु शब्दत्वें जांव उठी । तांव शब्ददवता प्रगटे पाठींपोटीं ।
तणेें अकृदत्रम भजन उठी । ब्रह्माप दणदमठी श्रवणीं पड े॥ ३७१ ॥ शब्दबोलासवें अथ दवाढी । तांव शब्ददवता ि ेशब्दाथ दगोडी ।
तणेें हदरभजनीं आवडी । स्वयें उठी गाढी श्रवणाप दणेंसीं ॥ ३७२ ॥ शब्द जांव कानीं पड े। तांव शब्दाथें भजन वाढें ।
बोलदवत्याच्या गा अांगा िड े। अप दण उिडें कदरताांदच ॥ ३७३ ॥ बोलासी जो बोलदवता । त्यासीं दृढ केली एकात्मता ।
तें भजन चढ ेश्रवणाच्या गा हाता । ब्रह्माप दणता दनजयोगें ॥ ३७४ ॥ सि गरुुवचन पडताां कानीं । मनाच ेमनपण दवरे मनीं ।
तेंदच श्रवण ब्रह्माप दणीं । भगवि भजनीं साथ दकता ॥ ३७५ ॥ श्रवणेंदच यापरी श्रवण । कदरताां उदठलें ब्रह्माप दण ।
हतेरुदहत भगवि भजन । स्वभावें जाण स्वयें होत ॥ ३७६ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ४४ दिनाांक २६/०४/२०१५
भजनें तषु्टला जगदन्नवास । होय वासाचा दनजवास । मग घ्राणिारा परशे । भोगी सवुास ब्रह्माप दणेंसीं ॥ ३७७ ॥
जो समुना समुनपण जोडी । तो घ्राणाचेंही घ्राण होय आवडी । मग नाना सवुासपरवडी । ब्रह्माप दणप्रौढीं दनजभोग अपी ॥ ३७८ ॥
वासाचा अवकाश होय आपण । घ्राणीं ग्राहकपणें जाण । तो भोगदुच स्वयें सांप ण द । कृष्णाप दण सहज होत ु॥ ३७९ ॥
रसना रस सवे ां जाय े। तांव रसस्वादु िवेदच होय े। मग रसनमेाजीं य ेऊदन राह े। ब्रह्माप दणें पाह ेरसभोगवतृ्ती ॥ ३८० ॥
ज ेज ेरसना सवेी गोडी । त ेत ेहदररूपें िडफुडी । स्वािा य ेऊदन रोकडी । ब्रह्माप दणपरवडी दनजभोग अपी ॥ ३८१ ॥
रस-रसना-रसस्वादु । दत्रदविभिेें दनजअभदेु । रससवेनीं परमान ांदु । स्वानांिकां दु वोसांड े॥ ३८२ ॥ कटु मिरु नाना रस । रसना सवेी सावकाश ।
परी त ेअविा ब्रह्मरस । स्वािीं सरुस परमान ांदु ॥ ३८३ ॥ यापरी रसीं रसना । भोगें रतली कृष्णाप दणा ।
आताां स्पशददवषयरचना । अप ेब्रह्माप दणा तें ऐक राया ॥ ३८४ ॥ स्पशद ि ेईज ेदनजिहेीं । तांव िहेींच प्रगटे दविहेी ।
मग स्पशी जें जें काांहीं । तो तो भोग ुपाहीं ब्रह्माप दणें उठी ॥ ३८५ ॥ स्पशादस्पशें जें स्पदशदज े। तांव स्पशा दवया नाडळे दुजें ।
तणेें एकपणाचदेन व्याजें । कृष्णाप दणवोजें भजन प्रगटे ॥ ३८६ ॥ तथे जो जो ि ेईज ेपिाथ ुद । तो तो पिाथ ुद होय समथ ुद ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ४५ दिनाांक २६/०४/२०१५
तणेेंदच भजनें परमाथ ुद । दनजस्वाथ ुद दनजभिाां ॥ ३८७ ॥ द्यावया काांहीं िवेा जाय े। तांव ितेाां भजन कैसें होय े। ितेें ितेें िान स्वयें । िवेोदच होय ेदनजाांगें ॥ ३८८ ॥ ज ेउतें ज ेउतें चालवी पाय े। तो तो माग ुद िवेोदच होय े।
मग पा उला पा उलीं पाहे । दनजभजन होय ेब्रह्माप दणेंशीं ॥ ३८९ ॥ चरणा चरणा दनजगती । तोदच दनजाांगें दक्षतीची दक्षती ।
चालताां तदैशया यिुी । सहज ब्रह्मदस्थदत दनजकमें अपी ॥ ३९० ॥ बोल बोलदवदतया विनीं भटेी । बोलणें लाज ेत्यादचया दृष्टी ।
त ेलाज दगळ न बोलणें उठी । दनजभजनपषु्टी ब्रह्माप दणेंसी ॥ ३९१ ॥ शब्द मावळे दनःशब्दीं । दनःशब्ददच बोदलज ेशब्दीं ।
तोदच अप दणाचा दविी । जाण दत्रशदु्धी समदप दतदेनशीं ॥ ३९२ ॥ बोलु बोलदवता बोला आांत ु। तो बोलु अप दणेंसींच यते ु।
ऐसा शब्देंदच भजनाथ ुद । प्रकटे परमाथ ुद ब्रह्माप दणेंसीं ॥ ३९३ ॥ ऐसा मनें-कमें-वचनें । जो दृढावला भगवद् भजनें ।
तेंदच भजन अदभमानें । दनजदनवा दणें दृढ िरी ॥ ३९४ ॥ तरांग समदु्रा आांतौता । म्हण ेमाझदेन मिे ुतत्त्वताां ।
जगातें दनवदवता जीवदवता । तषृा हदरता चातकाांची ॥ ३९५ ॥ माझदेन सस्यें दपकतीं । माझदेन सदरता उसळती ।
मागतुी मजमाजीं दमळती । समरसती दसांितु्वें ॥ ३९६ ॥ तवेीं मळुींचें प ण दपण । पावोदन भज ेअदभमान ।
त्याच ेभजनाचें लक्षण । साविान अविारीं ॥ ३९७ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ४६ दिनाांक २६/०४/२०१५
म्हण ेमी सकललोककता द । कम द करोदन अकता द । मी सव दभोगभोिा । दनत्य अभोिा मी एकु ॥ ३९८ ॥ सकळ लोकीं माझी सत्ता । सकळीं सकळाांचा दनयांता ।
सकळाां सकळत्वें मी प्रकादशता । होय मी शास्ता सकदळकाांचा ॥ ३९९ ॥
सकळाां भ तीं मी एकु । मीदच व्याप्य व्यापकु । जदनता जनदयता जनकु । न होदन अनकुे जगि रूप मी ॥ ४०० ॥
मी िवेाांचा आदििवेो । िवेीं िवेपणा माझादच भावो । व्ययामाजीं मी अज अव्ययो । अक्षरीं अक्षरभावो माझदेन अांगें ॥ ४०१
॥ ईश्वरीं ज ेज ेसत्ता । त ेत ेमाझी सामर्थ्यदता ।
भगवांतीं भगवांतता । जाण तत्त्वताां माझदेन ॥ ४०२ ॥ मी आपरूपीं आप ु। मी प्रकृदतपरुुषाांचा बाप ु।
सदृष्टरचनचेा सांकल्प ु। दनदव दकल्प ुपैं माझा ॥ ४०३ ॥ मी आिीची अनादि आिी । मी समािीची दनजसमािी ।
दनजशदु्धीसी माझदेन शदु्धी । यापरी दत्रशदु्धी अदभमानाप दण ॥ ४०४ ॥ मी अजन्मा न जन्मोदन जन्में । मी अकमा द न करोदन करीं कमें । माझदेन योगें परुुषोत्तमें । पादवज ेमदहम ेउत्तमत्वाच े॥ ४०५ ॥
सच्छब्दें माझें अांग । दचच्छब्दें मीदच चाांग । न होदनया दतन्ही भाग । आनांि दनव्यांग तोदच मी ॥ ४०६ ॥ माझदेन स य ददृष्टी डोळस । मजमाजीं दचिाकाशाचा अवकाश ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ४७ दिनाांक २६/०४/२०१५
माझदेन अांगें जगदन्नवास । सावकाश नाांित ु॥ ४०७ ॥ अजा अजपणें मी अज । दनःशषे दनबीजाां मी बीज । माझदेन दनजाांगें दनज । दनजभोज स्वयें नाच े॥ ४०८ ॥ अदिष्ठाना मजमाजीं अदिवास ु। मी जगिीशाचा प ण द ईश ु। मी परम परुुषाचाही परुुष ु। परशेा परेश ुमीच स्वयें ॥ ४०९ ॥ असांत माझदेन सांत होय े। अदचत माझदेन दचित्व लाहे । दनजानन्दासीही पाहें । आनांदु दनवा दह ेमाझदेन ॥ ४१० ॥
मी सकळ दसद्धींची दनजदसद्धी । मी सवाांगिखेणी बदु्धीची बदु्धी । मोक्ष म्हणणें तोही उपािी । जाण दत्रशदु्धी माझदेन ॥ ४११ ॥
मी साचार दनजिमद । मजमाजीं ब्रह्म दवसर ेकम द । ब्रह्मसमािीचें परब्रह्म । दनजदनःसीम मीच मी ॥ ४१२ ॥ हदर-हर-ब्रह्मा दनजदनिा दरीं । हहेी माझ ेअांशाांशिारी ।
दम िशावताराांचा अवतारी । माझी दनजथोरी मीही नणेें । ॥ ४१३ ॥ ऐदशया नाना दववांचना । अदभमानें भज ेभगवि भजना ।
"ब्रह्माहमदस्म" दृढभावना । आपण आपणा प ण दत्वें अपी ॥ ४१४ ॥ जीव िालूदन पणु दत्वा आांत ु। जें जें अदभमान कदल्पत ु।
तें तें साचदच स्वयें होत ु। तेंही प ण दत्व अदप दत ुदनजप ण दत्वीं ॥ ४१५ ॥ "ब्रह्माहमदस्म" नसुिें वचन । य ेअहांत ेनाम भगवि भजन ।
मा हा तांव ति रूप हो ऊन । भज ेअदभमान ब्रह्माप दणेंसीं ॥ ४१६ ॥ साांड दन िहेबदु्धीचा केरु । भजनें उदठला अहांकारु ।
तो अपरोक्ष दनजसाक्षात्कारु । पाव दन प ण द दनिा दरु प ण दत्वें वत े॥ ४१७
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ४८ दिनाांक २६/०४/२०१५
॥ म्हणौदन मनना मीदच मनन । स्मरणा मीदच दनत्य स्मरण । दचत्तासी मी दनजदचांतन । दचांत्यिमेंवीण सव दिा ॥ ४१८ ॥ ज्याची सहसा प्रादप्त नव्े । तें दनजदचत्तेंदच दचांतावें ।
तांव अप्राप्तीची प्रादप्त पाव े। दचत्त दनजानभुवें सहज भजताां ॥ ४१९ ॥ तवे्ाां दनदितें जें जें दचांती दचत्त । तें तें स्वयेंदच होय समस्त । या प्रतीतीं दचत्त भजत । ब्रह्माप दणयिु दनजबोिें ॥ ४२० ॥ नादथलें दचांती त े"अदतदचांता" । आदथलें त े"दनदिांतता" ।
आथी नाथी साांदडली दचांता । सहजें न भजताां भजन होय े॥ ४२१ ॥ दचत्त दचांत्य आदण दचांतन । यापरी दतहींस जाहलें समािान । तें समािानही कृष्णाप दण । सहजी सांप ण द स्वयें होय े॥ ४२२ ॥
ऐदसया भगवि भजनदविीं । भजनशील झाली बदु्धी । तैं सकळ कमीं समािी । जाण दत्रशदु्धी स्वयें झाली ॥ ४२३ ॥
कमा दचरणीं समािी । एक म्हणती न िड ेकिीं । तें पावले नाहीं दनजात्मबोिीं । जाण दत्रशदु्धी दविहेा ॥ ४२४ ॥
ताटस्थ्या नाांव समािी । म्हण ेत्याची ठकली बदु्धी । त ेसमािी नव् ेदत्रशदु्धी । जाणावी नसुिी मछुा द आली ॥ ४२५ ॥
ताटस्थ्यापास दन उदठला । तैं तो समािीस मकुला । तवे्ाां एकिशेी भावो आला । मांिही या बोला न मादनती सत्य ॥ ४२६
॥ समािी आदण एकिशेी । बोलताां बोलणें य ेलाजसेी ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ४९ दिनाांक २६/०४/२०१५
सत्य मानी त ेशब्ददपशी । शदु्ध स्वरूपासी अनोळख ॥ ४२७ ॥ यथेें प्राचीन अदतसमथ द । तें म च्छा द आणोदन करी तटस्थ ।
वाांच दन चालत ेबोलत ेसमादिस्थ । जाण पाां दनदित वदसष्ठादिक ॥ ४२८ ॥
पाहें पाां िवेदष द नारदु । दवनोिें न मोड ेसमादिबोि ु। याज्ञवल्क्याचा समादिसांबांि ु। ऋदषप्रदसद्ध ुपदरक्षा केली ॥ ४२९ ॥ स्वरूप िखेोदन म दच्छदत जाहला । तो आपदणयाां आपण तरला । स्वयें तरूदन जन उद्धदरला । तो बोि ुप्रकादशला शकुवामिवेीं ॥ ४३०
॥ यालागीं समादि आदण व्यतु्थान । या िोनी अवस्थाांसदहत जाण । बदु्धी होय ेब्रह्माप दण । अखांडत्वें प ण द परमसमादि ॥ ४३१ ॥ अज ुदना ि ेऊदन दनजसमािी । सवेंदच िातला महायदु्धीं ।
परी तो कृष्ण कृपादनिी । ताटस्थ्य दत्रशदु्धी निेीच स्पशों ॥ ४३२ ॥ सकळ कमीं समािी । ह ेसि गरुुदच बोिी बदु्धी ।
तरी बदु्धींही दत्रशदु्धी । दनजसमािी न मोड े॥ ४३३ ॥ बदु्धीं आकळलें परब्रह्म । तैं अहतैकु चाले कम द ।
हेंदच बदु्धीचें अप दण परम । इतर तो भ्रम अनमुानज्ञान ॥ ४३४ ॥ स्वरूपीं दृष्टी दनविी । अनवदच्छन्न समानबदु्धी ।
कमा दकमीं अज्ञान न बािी । "परमसमािी" दतय ेनाांव ॥ ४३५ ॥ दनःशषे गदेलया िहेबदु्धी । स्वरूपपणें फुां ज न बािी ।
कमा दकमीं अज्ञान न बािी । त े'परमसमािी' दनदुदष्ट ॥ ४३६ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ५० दिनाांक २६/०४/२०१५
त ेस्वरूपीं दनरविी । भजनशीळ झाली बदु्धी । त ेसकळ कमीं समािी । दनजाप दणदविी स्वयें जाहली ॥ ४३७ ॥
जथेें शमली मनाची आिी । त ेजाणावी 'परमसमािी' । समािी िणेें त ेिहेबदु्धी । काष्ठ तें दत्रशदु्धी म दच्छदतप्राय ॥ ४३८ ॥
मनासी ठा उकें नस े। इांदद्रयीं व्यापारु तरी दिस े। कमद दनपज ेजें ऐसें । तें जादणज ेआपसैें 'कादयक' ॥ ४३९ ॥ श्वासोच्छ्वासाांच ेपदरचार । काां दनमषेोन्मषेाांच ेव्यापार । तहेी नारायणपर । केले साचार दनजस्वभावें ॥ ४४० ॥ तरी िहेगहेवणा दश्रमें । स्वभागा आलीं जीं जीं कमें ।
तीं तीं आचरोदन दनजिमें । प वा दनकु्रमें अनहांकृती ॥ ४४१ ॥ साखरचेें कारलें प्रौढ । तें िठे -काांटेनशीं सव दही गोड ।
तवेीं इांदद्रयकमदग ढ । स्वादिष्ठ सदृढ ब्रह्माप दणें ब्रह्मीं ॥ ४४२ ॥ कमदकलाप ुआिवा । आचरोदन आदण गौरवा ।
परी कतपेणादचया गाांवा । अहांभावो स्पशनेा ॥ ४४३ ॥ मजपास न झालें सत्कमद । माझा आचार अदत उत्तम ।
म्ाां दनरदसलें मरणजन्म । हा स्वभावें िहेिम द उठोंदच नणे े॥ ४४४ ॥ िहेसांगें तरी वत दणें । परी िहेिम द िरूां नणे े।
िहेस्वभाव लक्षणें । ब्रह्माप दणें दवचदरती ॥ ४४५ ॥ िहेिमा दचा नठेु फाांटा । ज्ञानगवा दचा न चढदेच ताठा ।
यालागीं सहज भजनामादजवटा । झाला तो पठैाां अनहांकृती ॥ ४४६ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ५१ दिनाांक २६/०४/२०१५
त्यापास दन जें जें दनपज े। तें तें िवेो म्हण ेमाझें खाजें । यालागीं ब्रह्माप दणवोजें । त्याच ेस्वभाव सहजें नादप दताां अदप दती ॥ ४४७
॥ पदरसाच ेकसवटीवर् हें । जें जें लाग ेतें तें साडपे ांिरें । तवेीं दनपज ेजें जें शरीरें । तें तें खरें परब्रह्म ॥ ४४८ ॥
त्याचा खळुे तेंदच महाप जन । त्याची बडबड तेंदच दप्रय स्तवन । त्याच ेस्वभावीं स्वानांिप ण द । श्रीनारायण सखुाव े॥ ४४९ ॥
तो ज ेउती वास पाह े। आवडीं िवेो त ेउता राह े। मग पाह ेअथवा न पाहे । तरी िवेोदच स्वयें स्वभावें दिस े॥ ४५० ॥
तयासी चालताां मागें । तो माग ुद हो इज ेश्रीरांगें । तो िवेादचया िोंिावरी वगेें । चाले सवाांगें डुल्लत ॥ ४५१ ॥
जें जें कम द स्वाभादवक । तें तें ब्रह्माप दण अहेतकु । या नाांव भजन दनिोख । 'भागवतिमद' िखे या नाांव ॥ ४५२ ॥
स्वाभादवक ज ेवत दन । तें सहजें होय ब्रह्माप दण । या नाांव शदु्ध आरािन । भागवतिमद प ण द जाण राया ॥ ४५३ ॥
यापरी भगवि भजनपथा । भय नाहीं गा सव दथा । 'अभय' पदुशलें नपृनाथा । तें जाण तत्त्वताां भजनें होय ॥ ४५४ ॥
यथेें भयाचें कारण । राया त ां म्हणशील कोण । तेंही साांगों साविान । ऐक श्रवणसौभाग्यदनिी ॥ ४५५ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ५२ दिनाांक २६/०४/२०१५
भयां दितीयादभदनवशेतः स्यात ईशािपतेस्य दवपय दयोऽस्मदृतः । तन्माययातो बिु आभजते्तां
भक्त्यकैयशेां गरुुिवेतात्मा ॥ ३७ ॥ आताां प ण दत्वें सव दत्र एक । तथे जो म्हण ेमी वगेळा िखे । तेंदच अज्ञान भयजनक । दुःखिायक अदतिांिें ॥ ४५६ ॥ भयाचें म ळ दृढ अज्ञान । त्याचें दनवत दक मखु्य ज्ञान ।
तथे काां लागलें भगवि भजन । ऐसा ज्ञानादभमान पांदडताां ॥ ४५७ ॥ ऐक राया यदेच अथी । ज्ञानासी कारण मखु्य भिी ।
हा कृतदनियो आमचु्या गा मतीं । तहेी उपपत्ती अविारीं ॥ ४५८ ॥ अज्ञानाचें म ळ माया । ज ेब्रह्मादिकाां न य ेआया ।
गणुमयी लागली प्रादणयाां । जाण त ेराया अदत दुस्तर ॥ ४५९ ॥ त्या मायचेें मखु्य लक्षण । स्वस्वरूपाचें आवरण ।
ितैाांचें जें सु्फर ेसु्फरण । "म ळमाया" जाण दतचें नाांव ॥ ४६० ॥ ब्रह्म अियत्वें पदरप ण द । त ेस्वरूपी सु्फरे जें मीपण ।
तेंदच मायचेें जन्मस्थान । दनियें जाण नपृनाथा ॥ ४६१ ॥ त ेमायचे्या गा दनजपोटीं । भयशोकदुःखाांदचया कोटी ।
ब्रह्मादशवािींच ेलाग ेपाठी । इतराांची गोठी त ेकोण ॥ ४६२ ॥ त ेमाहामायचेी दनवतृ्ती । करावया िाटुगी भगवि भिी ।
स्वयें श्रीकृष्ण यदेच अथीं । बोदलला अज ुदनाप्रती गीतमेाजीं ॥ ४६३ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ५३ दिनाांक २६/०४/२०१५
" मामवे य ेप्रपद्यि ेमायामतेाां तरदि त े" भ. गीता-७.१४ माया म्हदणज ेभगवच्छिी । भगवि भजनें दतची दनवतृ्ती ।
आन उपाय तथेें न चलती । भि सखुें तरती हदरमाया ॥ ४६४ ॥ हरीची माया हदरभजनें । हदरभिीं सखुेंदच तरणें ।
हें दनजगहु्य अज ुदनाचदेन कारणें । स्वयें श्रीकृष्णें साांदगतलें ॥ ४६५ ॥ मायदेच हेदच दनजपषु्टी । स्वरूपीं दवमखु करी दृष्टी ।
ितैभावें अत्यांत लाठी । भ्रमाची दत्रपटुी वाढवी सिा ॥ ४६६ ॥ भयाचें जनक ितैभान । ितैजनक माया जाण ।
मायादनवत दक ब्रह्मज्ञान । हें सांत सज्ञान बोलती ॥ ४६७ ॥ ऐसें श्रषे्ठ जें ब्रह्मज्ञान । तें भिीचें पोसणें जाण ।
न कदरताां भगवि भजन । ब्रह्मज्ञान किा नपुज े॥ ४६८ ॥ जरी जाहले विेशास्त्रसांपन्न । दतहीं न कदरताां भगवि भजन । मायादनवत दक ब्रह्मज्ञान । तयाांसीही जाण किा नपुज े॥ ४६९ ॥
शब्दज्ञानाची व्यतु्पत्ती । िाटुगी होय लौदकक दस्थती । मायादनवत दक ज्ञानप्राप्ती । न कदरताां हदरभिी किा नपुज े॥ ४७० ॥
हदरगणुाांची रसाळ कहाणी । त ेब्रह्मज्ञानाची दनजजननी । हदरनामाचदेन गज दनीं । जीव ि ेऊदन माया पळे ॥ ४७१ ॥ माया पळताां पळों न लाह े। हदरनामिाकें दवरोदन जाय े। यालागीं हदरमाया पाहें । बाि ां न लाह ेहदरभिाां ॥ ४७२ ॥ नामाची परम दुि दर गती । माया साहों न शके दनजभिी ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ५४ दिनाांक २६/०४/२०१५
हदरभि माया सखुें तरती । यालागीं श्रीपती बोदलला स्वयें ॥ ४७३ ॥
सायजु्याच्या गा चारी मिुी । अांकीं वाढवी भगवि भिी । त ेन कदरताां अनन्यगती । शास्त्रज्ञाां मिुी न िड ेकिा ॥ ४७४ ॥
हदरभजनीं ज ेदवमखु । त्याांसी सिा ितै सन्मखु । महाभयेंसीं दुःखिायक । प्रपांच ुिखे दृढ वाढ े॥ ४७५ ॥ जवेीं एका एकीं दिग्भ्रम ुपड े। तो प ण द म्हण ेपदिमकेड े। तसैी वस्तदुवमखुें वाढ े। अदतगाढें दमर्थ्या ितै ॥ ४७६ ॥ ितैादचय ेभिेदवदहर े। सटुती सांकल्पदवकल्पाांच ेझर े।
तथे जन्ममरणाांचदेन प रें । बडु ेएकसर ेब्रह्माांडगोळ ॥ ४७७ ॥ जन्ममरणाांदचया वोढी । नाना दुःखाांदचया कोडी ।
अभि सोदशती साांकडीं । हदरभिाांतें वोढी स्वप्नींही न लग े॥ ४७८ ॥
भिीचें अगाि मदहमान । तथेें दरिनेा भवबांिन । तें करावया भगवि भजन । सि गरुुचरण सवेाव े॥ ४७९ ॥ दनजदशष्ाची मरणदचांता । स्वयें दनवारी जो वस्ततुाां ।
तोदच सि गरुु तत्त्वताां । यरे त ेगरुुता मांत्रतांत्रोपिशेें ॥ ४८० ॥ मांत्रतांत्र उपिदेशत े। िरोिरीं गरुु आहते आ इत े।
जो दशष्ासी मळेवी सिस्त तें । सि गरुु त्याांत ेश्रीकृष्ण मानी ॥ ४८१ ॥
गरुु िवेो गरुु माता दपता । गरुु आत्मा ईश्वर वस्ततुाां ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ५५ दिनाांक २६/०४/२०१५
गरुु परमात्मा सव दथा । गरुु तत्त्वताां परब्रह्म ॥ ४८२ ॥ गरुूच ेउपमसेमान । पाहताां जगीं न दिस ेआन ।
अगाि गरुूच ेमदहमान । तो भाग्येंवीण भटेेना ॥ ४८३ ॥ दनष्काम पणु्यादचया कोडी । अगाि वरैाग्य जोड ेजोडी ।
दनत्यादनत्यदववकेआवडी । तैं पादवज ेरोकडी सि गरुुकृपा ॥ ४८४ ॥ सि गरुुकृपा हातीं चढ े। तथेें भिीचें भाांडार उिड े।
तवे्ाां कदळकाळ पळे पढुें । कायसें बापडुें भवभय ॥ ४८५ ॥ गरुूतें म्हणो मातादपता । त ेएकजन्मीं सव दथा ।
हा सनातन तत्त्वताां । जाण पा वस्ततुाां मायबाप ु॥ ४८६ ॥ अिोिारें उपजदवता । त ेलौदककीं मातादपता ।
अिोिारा आतळों नदेिता । तो सि गरुु दपता सत्यत्वें दशष्ाां ॥ ४८७ ॥
गरुूतें म्हणों कुळिवेता । दतची कळकमीच प ज्यता । हा सव द कामीं अकता द । प ज्य सवदथा सवा दथीं ॥ ४८८ ॥ गरुु म्हणो िवेासमान । तांव िवेाांसी याचदेन िवेपण । मग त्या सि गरुूसमान । िवेही जाण तकेुना ॥ ४८९ ॥ गरुु ब्रह्म िोनी समान । हहेी उपमा दकां दचत न्य न ।
गरुुवाक्य ेब्रह्मा ब्रह्मपण । तें सि गरुुसमान अियत्वें ॥ ४९० ॥ यालागी अगाि गरुुगदरमा । उपमा नाहीं दनरुपमा ।
ब्रह्मीं-ब्रह्मत्व-प्रमाण-प्रमा । ह ेवाक्यमदहमा गरुूची ॥ ४९१ ॥ ब्रह्म सवाांच ेप्रकाशक । सि गरुु तयाचाही प्रकाशक ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ५६ दिनाांक २६/०४/२०१५
एवां गरुूहूदन अदिक । नाहीं आदणक प ज्यत्वें ॥ ४९२ ॥ यालागीं गरुूतें मनषु्बदु्धीं । पाहों नय ेगा दत्रशदु्धी ।
ऐदशय ेभावाथ दबदु्धी । सहजें दचत्तशदु्धी सदच्छष्ाां ॥ ४९३ ॥ ज्याांचा गरुुचरणीं दनःसीम भावो । त्याांचा मनोरथ परुवी िवेो । गरुु आज्ञा िवेो पाळी पहा हो । गरुुवाक्यें स्वयमवेो जड म ढ तारी ॥
४९४ ॥ ब्रह्मभावें ज ेगरुुसवेक । िवेो त्याांचा आज्ञािारक ।
त्याांसी दनत्य परुवी दनजात्मसखु । ह ेगरुुमया दिा िखे नलु्लुांिी िवेो ॥ ४९५ ॥
िवेो गरुु आज्ञा स्वयें मानी । तांव गरुु िवेासी प ज्यत्व आणी । एवां उभयताां अदभन्नपणीं । भावादथ दयाांलागोनी तारक ॥ ४९६ ॥
सि भावो नाहीं अभ्यांतरीं । बाह्य भदि भावेंदच करी । त ेभावानसुारें सांसारीं । नानापरी स्वयें ठकती ॥ ४९७ ॥
ठकले त ेमनषु्गती । ठकले त ेदनःस्वाथी । ठकले त ेब्रह्मप्राप्ती । िांभें हदरभिी किा नपुज े॥ ४९८ ॥
यथे भावेंवीण तत्त्वताां । परमाथ ुद न य ेहाता । सकळ सािनाांच ेमाथाां । जाण तत्त्वताां सि भावो ॥ ४९९ ॥ कोरदडय ेखाांबीं िदरताां सि भावो । तथेेंदच प्रगटे िवेादििवेो । मा सि गरुु तांव तो पहा वो । स्वयें स्वयमवेो परब्रह्म ॥ ५०० ॥ यालागी गरुुभजनापरता । भजावया माग ुद नाही आयता ।
ज्ञान-भदि ज ेतत्त्वताां । त ेजाण सव दथा सि गरुुभदि ॥ ५०१ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ५७ दिनाांक २६/०४/२०१५
गरुुहूदन श्रषे्ठ ब्रह्म । म्हणताां गरुुत्वा आला कदनष्ठ िम द । ऐसा भाव िदरताां दवषम । ब्रह्मसाम् दशष्ाां नपुज े॥ ५०२ ॥ आम्हाां सि गरुु तोदच परब्रह्म । ऐसा दनत्य दनजभाव सप्रमे । हदेच गरुुसवेा उत्तमोत्तम । दशष् परब्रह्म स्वयें होय े॥ ५०३ ॥
ऐदशय ेगरुुसवे ेआांत । प्रह्लाि झाला िांिातीत । नारि स्वानांिें गात नाचत । ब्रह्मसाम्ें दवचरत सरुासरुस्थानें ॥ ५०४
॥ ऐसीदच गरुुसवेा कदरताां । चकुली अांबरीषाची गभ दव्यथा ।
त ेगभ द जाहला िवेोदच साहता । भिा भवव्यथा बािों निेी ॥ ५०५ ॥ ऐदशया अदभन्न भावना । सबुदु्धी भजती गरुुचरणाां ।
त ेपदढयांत ेजनाि दना । त्याांसी भवभावना दशवों निेी ॥ ५०६ ॥ गरुु ब्रह्म िोनी एक । दशष्ही अस ेतिात्मक ।
ज ेभिेें मादनती वगेदळक । तहेी मादयक कदव साांग े॥ ५०७ ॥ अदवद्यमानोऽप्यवभादत दह ियोः ध्यातदुि दया स्वप्नमनोरथौ यथा । तत्कमदसङ्कल्पदवकल्पकां मनो
बिुो दनरुन्ध्याि अभयां ततः स्यात ॥ ३८ ॥ परुुषासी जो प्रपांच ुदिस े। तो नसताांदच दमर्थ्या आभास े।
जवेीं काां एकला दनद्रावशें । स्वप्नीं दनजमानसें जग कल्पी ॥ ५०८ ॥ असोदन दनद्रावश दिस ेस्वप्न । जो जागा होवोदन आपण ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ५८ दिनाांक २६/०४/२०१५
करूां बसै ेमनोरथध्यान । तो नसतेंदच जन वन एकत्वीं िखे े॥ ५०९ ॥ हो काां िालोदन आसन । जो करी म दत ददचांतन ।
त्यासी ध्यये-ध्याता-उपचार-ध्यान । नसतेंच जाण कदल्पत भास े॥ ५१० ॥
जवेीं िनलोभ्याचें हारप ेिन । परी वासना न साांडी िनिान्य । िनातें आठदवताां मन । िनलोभें प ण द दपसें होय े॥ ५११ ॥ मन स्वयें जरी नव् ेिन । तरी िनकोश आठवी मन । तांव स्मतृी वळि ेवन । व्यामोहें प ण द दपसें होय े॥ ५१२ ॥ तवेीं व्यामोहाचें प ण द भदरत । दमर्थ्या भास ेिहेादि ितै ।
तें अहांभावें मादनताां आप्त । भवभय दनदित आिळे अांगीं ॥ ५१३ ॥ भवभयाच ेकारण । मनःकल्पना मखु्य जाण ।
त्या मनाचें करावया दनरोिन । सि गरुुवचनदनजदनष्ठा ॥ ५१४ ॥ हें जाणोदन सदच्छष् ज्ञात े। गरुुवाक्यें दवश्वासयिुें ।
दववकेवरैाग्याचदेन हातें । दनजमनातें आकदळती ॥ ५१५ ॥ तदेच आकळती हातवटी । सांक्षपेें राया साांगने गोष्टी ।
सि गरुुवाक्य पदरपाटी । ज ेमनातें थापटी दनजबोिें ॥ ५१६ ॥ चांचळत्वें दवषयध्यान । कदरताां िखे ेजें जें मन ।
तें तें होय ब्रह्माप दण । सि गरुुवचनदनजदनष्ठा ॥ ५१७ ॥ िरूदनयाां दवषयस्वाथ ुद । मनें जो जो ि ेइज ेअथ ुद ।
तो तो होय परमाथ ुद । हा अनगु्रहो समथ ुद गरुुकृपचेा ॥ ५१८ ॥ जो भ ुईभणेें पळों जाय े। तो जथेें पळे तथेें भ य े।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ५९ दिनाांक २६/०४/२०१५
मग यणेेंजाणें स्वयें राह े। ठायीं ठाय ेपाांगळुला ॥ ५१९ ॥ तसैें मनासी लादवज ेवम द । जें जें िखे ेतेंदच ब्रह्म ।
जें जें करूां बसै ेकम द । तथे परुुषोत्तम स्वयें प्रगटे ॥ ५२० ॥ एवां इांदद्रयवदृत्त उल्लाळे । मोदडले गरुुवाक्यप्रतीदतबळें ।
दनजादिष्ठानमळेें । कळासलें यकेे वळेे अखांड कुलुप ॥ ५२१ ॥ ऐसें नदेमताां बाह्य कमद । मनाचा मोड ेितै भ्रम । तांव बाह्य परब्रह्म । प ण द दचद्व्योम कोंिाटे ॥ ५२२ ॥
ऐसें भजनें मन नदेमताां स्वयें । न दरि ेकल्पाांतकाळभय े। भि हो ऊदनयाां दनभ दयें । दवचरती स्वयें दनःशांक ॥ ५२३ ॥ ह ेअगाि दनष्ठा पदरप ण द । भोळ्याभाळ्या न टके जाण । यालागी सगुम सािन । साांगने आन तें ऐक ॥ ५२४ ॥
श्रणृ्वन्सभुद्रादण रथाङ्गपाणःे जन्मादन कमा ददण च यादन लोके । गीतादन नामादन तिथ दकादन
गायदन्वलज्जो दवचरिेसङ्गः ॥ ३९ ॥ तरावया भाळेभोळे जन । मखु्य दचत्तशदु्धीच कारण । जन्मकमद हरीच ेगणु । कराव ेश्रवण अत्यािरें ॥ ५२५ ॥ चकुल्या पतु्राची शदुद्धवाता द । जणेें सािरें ऐके माता । तणेें सािरें हदरकथा । साथ दकता पदरसावी ॥ ५२६ ॥
हरीचीं जन्मकमें अनांत गणु । म्हणाल त्याांचें नव्ले श्रवण ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ६० दिनाांक २६/०४/२०१५
लोकप्रदसद्ध जें जें परुाण । तें श्रद्धा सांप ण द ऐकावें ॥ ५२७ ॥ बहु िवे बोदलले परुाणीं । तहेी लागती ज्याच ेचरणीं । तो समथ द चक्रपाणी । जो विेपरुाणीं वांदिज े॥ ५२८ ॥
त्याचीं जीं जीं जन्म ेअदत अि भतु । जीं जीं कम ेपरमाथ दयिु । स्वमखुें बोदलला भगवांत । तीं तीं ज्ञानाथ द पदरसावीं ॥ ५२९ ॥
जें जें केलें परुाणश्रवण । तें तें व्यथ द होय मननेंदवण । यालागीं श्रवण-मनन । साविान करावें ॥ ५३० ॥ मोले ितेली ज ेगाय े। दुभतें खाताां दवषय होय े।
तदेच िान ितेाां लवलाहें । दुभती होय ेपरमामतृें ॥ ५३१ ॥ तवेीं केले जें श्रवण । तें मननें परम पावन ।
तेंदच उपदेक्षताां जाण । पदरपाकीं प ण द वाांझ होय े॥ ५३२ ॥ हदरनाम पडताां श्रवणीं । एकाां गळोदन जाय ेविनीं ।
एकाां य ेकानींच ेत ेकानीं । जाय दनिोदन हदरनाम ॥ ५३३ ॥ हदरनाम पडताां श्रवणीं । ज्याच ेदरि ेअांतःकरणीं ।
सकळ पापा होवोदन िणुी । हदरचरणीं तो दवनटे ॥ ५३४ ॥ यापरी श्रवणीं श्रद्धा । मननयिु कदरताां सिा ।
तैं दवकल्प बािीना किा । वदृत्तां शदु्धा स्वयें होय े॥ ५३५ ॥ ऐसें मननयिु श्रवण । कदरताां वोसांड ेहष द प ण द ।
तणेें हषें हदरदकत दन । करी आपण स्वानांिें ॥ ५३६ ॥ हदरचदरत्रें अगाि । ज्ञानमदु्रा-पिबांि ।
कीत दनीं गाताां दवशि । परमान ांि वोसांड े॥ ५३७ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
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वादनती अजन्मयाचीं जन्में । वादनती अकमदयाचीं कमें । स्मरती अनादमयाचीं नामें । अदतसप्रमेें डुल्लत ॥ ५३८ ॥ सािावया दनजकाज । साांड दन लौदककाची लाज ।
कीत दनी नाचती भोज । अदतदनलदज्ज दनःशांक ॥ ५३९ ॥ कीत दनें दनि ददळले िोष । जप तप ठेले दनरास ।
यमलोक पादडला वोस । तीथा दची आस दनरास जाहली ॥ ५४० ॥ यमदनयमाां पडती उपवास । मरों टेंकले योगाभ्यास । कीत दनगजरें हृषीकेश । दनि दळी िोष नाममात्र े॥ ५४१ ॥
कीत दनाचा िडिडाट । आनांदु कोंिला उि भट । हरुषें डोले वकुैां ठपीठ । तणेें सखुें नीलकां ठ ताांडवनाचें नाचत ु॥ ५४२
॥ यापरी हदरकीत दन । िते परम समािान ।
हा भदि-राजमाग द प ण द । य ेमागीं स्वयें रक्षण चक्रपाणी कता द ॥ ५४३ ॥
चक्र ि ेऊदन भिाांच ेठायीं । म्हण ेतझुें काय द कायी । मज जगीं वरैीदच नाहीं । भििेषी पाहीं दनजशस्त्रें नाशी ॥ ५४४ ॥
चक्रें अदभमानाचा करी चेंिा । मोहममता छेिी गिा । शांखें उद्बोिी दनजबोिा । दनजकमळें सिा दनजभि प जी ॥ ५४५ ॥ जथेें चक्रपाणी रदक्षता । तथेें न दरि ेभवभयाची कथा वाता द । यापरी कीदत दवांता । हदर सव दथा स्वयें रक्षी ॥ ५४६ ॥ ज्याांसी न करव ेकथाश्रवण । अथवा न टके हदरकीत दन ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ६२ दिनाांक २६/०४/२०१५
दतांहीं करावें नामस्मरण । राम-कृष्ण-गोदवांि ॥ ५४७ ॥ अच्या गतु-नामाची दनजख्याती । चवेल्या कल्पाांतीं हों निेी च्या गतुी । त्या नामातें ज ेदनत्य स्मरती । त ेजाण दनदितीं अच्या गतुावतार ॥ ५४८
॥ रामकृष्णािी नामश्रणेी । अखांड गज ेज्याांची वाणी ।
त्याांसी तीथें यतेी लोटाांगणीं । सरुवर चरणीं लागतीं स्वयें ॥ ५४९ ॥ बाप नामाचें दनजतजे । यम वांिी चरणरज ।
नामापाशीं अिोक्षज । चतभु ुदज स्वयें दतष्ठ े॥ ५५० ॥ नामाचदेन पदडपाडें । कादयसें भवभय बापडुें ।
कदळकाळाचें तोंड कोणीकड े। नामापढुें दरिावया ॥ ५५१ ॥ जवेढी नामाची शिी । तवेढें पाप नाहीं दत्रजगतीं ।
नामापाशी चारी मिुी । जाण दनदित्तीं दविहेा ॥ ५५२ ॥ ऐक राया साविान । नामापरतें सगुम सािन ।
सवदथा नाहीं नाहीं आन । दनिय जाण नमेस्त ॥ ५५३ ॥ जन्म-नाम-कमें श्रीिर । श्रवणें उद्धरती पामर ।
यालागीं हदरलीला सभुद्र । शास्त्रज्ञ नर वदण दती ॥ ५५४ ॥ ऐसा बाणल्या भदियोग । न िरी जाणपणाचा फ ग ।
त्यज दन अहांममतापाांग । दवचरती दनःसांग हदरकीत दनें ॥ ५५५ ॥ कदरताां श्रवण स्मरण कीदत द । तणेें वाढ ेसप्रमे भदि ।
भि दवसरे िहेसु्फदत द । ऐक तहेी दस्थदत साांगने राया ॥ ५५६ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ६३ दिनाांक २६/०४/२०१५
एवांव्रतः स्वदप्रयनामकीत्या द जातानरुागो दु्रतदचत्त उच्चःै । हसत्यथो रोदिदत रौदत गायदत
उन्मािवत नतृ्यदत लोकबाह्यः ॥ ४० ॥ हदरनामगणुकीत दनकीती । अखांड आवड ेजागतृीं । स्वप्नींही तदेच दस्थती । दृढ हदरभिी ठसाव े॥ ५५७ ॥ ऐदशयापरी भदियिु । दृढतर जाहलें ज्याचें व्रत ।
तांव तांव होय आद्रददचत्त । प्रमेा अि भतु हदरनामकीती ॥ ५५८ ॥ आत्मा परमदप्रय हरी । त्याच ेनामकीतीचा हष द भारी ।
दनत्य नवी आवड वरी । सबाह्याभ्यांतरीं हदर प्रगटे ॥ ५५९ ॥ चकुल्या मायप ताां स ांकटीं । एकाकीं बहुकाळें जाहली भटेी ।
तणेें वोरड ेिालोदन दमठी । चाले जवेीं पोटीं अदनवार रुिन ॥ ५६० ॥
तवेीं जीवदशवाां अवचटी । भिीच ेपठेे जाहली भटेी । आत्मसाक्षात्कारें पड ेदमठी । त ेसांिीमाजीं उठी अदनवार रुिन ॥
५६१ ॥ परमात्मयासी आदलांगन । तणेें अदनवार सु्फां िन ।
रोमाांदचत रुिन । सप्रमे प ण द उसासोदन करी ॥ ५६२ ॥ सवेंदच गिगिोदन हाांस े। मानी मजमाजींच मी असें ।
चकुलों भटेलों हें ऐसें । िखेोदन आपलुें दपसें हाांसोंदच लाग े॥ ५६३ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ६४ दिनाांक २६/०४/२०१५
मी अखांडत्वें स्वयें सांचलों । अभिेप ण दत्वें अनादि रचलों । तो मी अव्ययो म्हण ेजाहलों मलेों । यणेें आठवें डोलडोलों हाांसोंदच
लाग े॥ ५६४ ॥ पळताां िोराच्या गा सपा दभणे । पड ेअडखळे भयें प ण द ।
तोच िोरातें वोळखोन । आपदणया आपण स्वयें हाांस े॥ ५६५ ॥ तवेीं सांसाराचा अभावो । िहेभाव सम ळ वावो ।
तथेें नादथली ममता अहांभावो । मज होता पहा वो म्हण दन हाांस े॥ ५६६ ॥
बाप गरुुवाक्य दनजदनवा दहो । िहेीं असताां दविहेभावो । माझ ेचारी िहे झाले वावो । यणेें अनभुवें पहा वो गजों लाग े॥ ५६७
॥ म्हण ेिन्य िन्य भगवि भिी । दजणें दमर्थ्या केल्या चारी मिुी । मी परमात्मा दनजदनदितीं । यणेें उल्हासें दत्रजगती गज दवी गजरें ॥
५६८ ॥ िन्य भगवांताचें नाम । नामें केलों दनत्य दनष्काम ।
सम ळ दमर्थ्या भवभ्रम । गजोदन दनःसीम हाक फोडी ॥ ५६९ ॥ आताां दुजें नाहींच दत्रलोकीं । दिस ेतें तें मीच मी कीं ।
मीच मी तो एकाकी । यणेें वाक्यें अलोदलकी हाक फोडी ॥ ५७० ॥ दुि दर भवबांि ज्याचदेन । दनःशषे गलेा हारपोनी ।
त्या सि गरुूच्या गा दनजस्तवनीं । गज दवी वाणी अलोदलक ॥ ५७१ ॥ म्हण ेसांसार झाला वावो । जन्ममरणाांचा अभावो ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ६५ दिनाांक २६/०४/२०१५
कदळकाळासी नाहीं ठावो । म्हणोदनयाां पहा वो हाक फोडी ॥ ५७२ ॥ ऐशा हाांकावरी हाका । फोड ां लाग ेअलोदलका ।
सवेंदच गाय ेदनजात्मसखुा । स्वानांिें िखेा डुल्लत ु॥ ५७३ ॥ परम सख्याची गोड कथा । तपृ्ती न बाण ेस्वयें साांगताां । तवेीं दनजानभुवें हदर गाताां । िणी सव दथा परुेना ॥ ५७४ ॥ त्याचें गाणें ऐकताां । सखुरूप होय सज्ञान श्रोता ।
ममुकु्षाां होय परमावस्था । जरी तो अवदचता गावों लाग े॥ ५७५ ॥ गाताां पिोपिीं दनजसखु । कोंिाटे अदिका अदिक ।
वोसांदडताां परम हदरख । स्वानांिें अलोदलक नाचों लाग े॥ ५७६ ॥ सारूदन दुजपेणाचें काज । दनरसोदन लौदककाची लाज ।
अहांभावेंदवण सहज । आनांिाच ेभोजें अलोदलक नाच े॥ ५७७ ॥ जो मोलें मदिरा खाय े। तो मदिरान ांिें नाच ेगाय े।
जणेें ब्रह्मानांदु सदेवला आह े। तो केवीं राहे आवरला ॥ ५७८ ॥ यालागीं तो लोकबाह्यता । स्वय ेनाच ेब्रह्मउन्मािता ।
लोक मादनती तया दपशाचता । हा बोि ुपांदडताां सहजा न कळे ॥ ५७९ ॥
त्यादचया दनजबोिाची कथा । ऐक साांगने नपृनाथा । एक भगवांतावाांच न सव दथा । त्यासी लौदककता दिसनेा ॥ ५८० ॥
खां वायमुदिां सदललां महीं च ज्योतींदष सत्त्वादन दिशो दु्रमािीन ।
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----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ६६ दिनाांक २६/०४/२०१५
सदरत्समदु्राांि हरःे शरीरां यदत्कां च भ तां प्रणमिेनन्यः ॥ ४१ ॥
ब्रह्मउन्मािपरमानांिें । जांव जांव पाह ेस्वानांिबोिें । तांव तांव चराचर प णा दन ांिें । िखे ेस्वानांिकां िें दुमदुदमत ॥ ५८१ ॥
पथृ्वी आप तजे वाय ुनभ । िखे ेहदररूप स्वयांभ । भ ताां महाभ ताांचें दडांभ । न िखे ेदभन्न कोंभ अदभन्नत्वें ॥ ५८२ ॥ जवेीं न मळेदवताां मळेा । पाहताां जसैा केळीचा कळा ।
स्वयें दवकास ेफळाांिळाां । तवेीं वस्त ुह ेपाांचाला भ तभौदतकात्मक ॥ ५८३ ॥
जवेीं काांतोदनयाां रांध्रसळे । स्फदटकिीपगहृअांगमळेें । दचतादरलीं अश्वगजिळें । तीं भासती सोज्ज्वळें आांतलेुदन िीपें ॥ ५८४
॥ तवेीं सोमस या ददि तजेशिी । काां वदन्ह नक्षत्रें ज ेलखलदखती । जननयनादि दनजिीप्ती । िखे ेआत्मज्योती सतजे ॥ ५८५ ॥ यिुीं मळेदवताां द्रव्याांतर । अदि परी भास ेपषु्पाकार ।
तवेीं वस्त ुस्वलीला साचार । रदवचांद्राकारा नानात्वें भास े॥ ५८६ ॥ पथृ्वी गांिरूपें स्वयें अस े। तो गांि ुकस्त या ददिकीं भास े।
तवेीं भगवत्सत्ता सव दत्र अस े। परी सादत्त्वकीं दिस ेअदतप्रगट ॥ ५८७ ॥
यालागीं सादत्त्वकाठायीं सत्त्व । तथे िखे ेभवगत्तत्त्व ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ६७ दिनाांक २६/०४/२०१५
सत्त्वें सत्त्वांताां महत्त्व । अदत मान्यत्व हदररूपें ॥ ५८८ ॥ पथृ्वीसी जळावरण आह े। तेंदच चतःुसमदु्र नाांव लाह े।
तसैें िवेाचेंदच अांग पाह े। दिशात्वें वाच्या ग होय ेिशदिशाां ॥ ५८९ ॥ प व दपदिमादि योग । िशदिशाांच ेदिदग्वभाग ।
तहेी िवेाचेंदच अांग । ति रूप श्रीरांग स्वयें भास े॥ ५९० ॥ तणृ दूवा द िभ द दु्रम । िखेोदन म्हण ेहहेी हरीच ेरोम ।
अनोळखा हें अदतदवषम । दनजाांगीं सव द सम हदररूप पाहताां ॥ ५९१ ॥
जशैा आपलु्या अांगोदळया । गदणताां दिसती वगेळादलया । परी असती लागदलया । स्वयें सगदळया अखांड अांगीं ॥ ५९२ ॥
तवेीं वन-वल्ली-िभ द-िाांग । िखेोदन म्हण ेहे हरीचें अांग । अनन्यभावें लगबग । दभन्नभाग िखेनेा ॥ ५९३ ॥
म्हण ेदूव द-दु्रम-वन-वल्ली । हदेच अनांत कोदट रोमावळी । हरीचदेन अांगें अस ेवाढली । त्या दनजशोभा शोभली हदररूपत्वें ॥
५९४ ॥ जवेीं वटाच्या गा पारांदबया । लोंबोदन वाढती वगेळादलया ।
त्याही वटरूपें सांचदलया । वटत्वा मकुदलया म्हणों नय े॥ ५९५ ॥ तवेीं चतैन्यापासोदन वोि । दनिाले सदरतारूप अनगे ।
तहेी चतैन्यिन चाांग । दचि रूपें साङ्ग सिा वाहती ॥ ५९६ ॥ हो काां चांद्रदबांबीं अमतृ जसै े। दबांबीं दबांबरूप हो ऊदन अस े।
तवेीं भगवांतीं सांसारु भास े। भजनदवश्वासें भगवि रूप ॥ ५९७ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ६८ दिनाांक २६/०४/२०१५
ऐस ेवगेवगेळे भाग । पाहताां उल्हास ेजांव चाांग । तांव अविें उिडें जग । िवेोदच साङ्ग स्वयें झाला ॥ ५९८ ॥ यालागीं सव द भ ताांच ेठायीं । अनन्यशरण कैसा पाहीं ।
लवण जसैें सागरापायीं । ठायीं ठायीं जडोदन ठाके ॥ ५९९ ॥ तथे म ुांगीही िखेोदन जाण । हदररूपीं वांिी आपण ।
मशकासही अनन्यशरण । िाली लोटाांगण भगवि रूपें ॥ ६०० ॥ गो-खर-चाांडाळ-श्वान । अदतदन ांद्य ज ेहीन जन ।
त ेभगवि रूप िखेोदन प ण द । िाली लोटाांगण अनन्यभावें ॥ ६०१ ॥ हदररूपें िखे ेपाषाण । भगवि रूपें वांिी तणृ ।
जांगमस्थावरादिकाां शरण । िाली लोटाांगण दचिकै्यभावें ॥ ६०२ ॥ कदरताां हदरनामस्मरणकीती । एका एकी एवढी प्राप्ती ।
झाली म्हणसी कैशा दरतीं । ऐकें नपृती तो भावो ॥ ६०३ ॥ कदरताां प जादवदिदविान । काां श्रवण स्मरण कीत दन ।
सवदिा दचिकै्यभावना प ण द । "प ण द प्रादप्त" जाण त्यातेंदच वरी ॥ ६०४ ॥ भदिः परशेानभुवो दवरदिः अन्यत्र चषै दत्रक एककालः । प्रपद्यमानस्य यथाश्नतः स्यःु
तदुष्टः पदुष्टः क्षिुपायोऽनिुासम ॥ ४२ ॥ आ इके दविहेा चक्रवती । ऐशी जथेें भगवि भिी ।
तीपाशीं दवषयदवरिी । य ेिाांवती गोवत्स न्यायें ॥ ६०५ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ६९ दिनाांक २६/०४/२०१५
हें असो जवेीं जावळीं फळें । हों नणेें यरेयरेाां वगेळें । तवेीं भदि दवरदि एके काळें । भि तणेें बळें बदळष्ठ होती ॥ ६०६ ॥
जथे भिी आदण दवरिी । नाांिो लागती सहजदस्थती । तथेेंदच प ण दप्राप्ती । िासीच्या गा दस्थतीं सव दिा राब े॥ ६०७ ॥
यापरी भगवि भिी । प ण द िाटुगी दत्रजगती । भिाांिरीं नाांि ेप्राप्ती । भदिदवरदिदनजयोगें ॥ ६०८ ॥ भदि दवरदि अनभुवप्राप्ती । दतन्ही एके काळें होती । ऐक राया तहेी दस्थती । दवशिोिीं साांगने ॥ ६०९ ॥ जसैी कीज ेभगवि भिी । तसैीच होय दवषयदवरिी ।
तिनसुारें अनभुवदस्थती । ती भि पावती तदेच क्षणीं ॥ ६१० ॥ जवेीं काां भकेुदलयापाशीं । ताट वादढलें षड्रसीं ।
तो पदुष्ट तदुष्ट क्षिुानाशासी । जवेीं ग्रासोग्रासीं स्वयेंदच पाव े॥ ६११ ॥ दजतकुा दजतकुा ि ेइज ेग्रास । दततकुा दततकुा क्षिुचेा नाश । दततकुादच पदुष्टदवन्यास । सखुोल्लास दततकुादच ॥ ६१२ ॥ पदुष्ट तदुष्ट क्षिुानाशनी । जवेीं एके काळें यतेी दतनी ।
भोिा पाव ेस्वयें भोजनीं । तवेीं भगवि भजनीं भक्त्यादि दत्रकु ॥ ६१३ ॥
सि भावें कदरताां भगवि भिी । भदि-दवरदि-भगवद्प्राप्ती । दतनी एके काळें होती । ऐदशया यिुीं जादणज ेराया ॥ ६१४ ॥
भिी म्हदणज ेसव द भ तीं । सप्रमे भजनयिुी । प्राप्ती म्हदणज ेअपरोक्षदस्थती । भगवत्स्फ ती अदनवार ॥ ६१५ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ७० दिनाांक २६/०४/२०१५
दवरदि म्हदणज ेऐशी पहा हो । स्त्रीपतु्रिहेादि अहांभावो । सम ळ जथेें होय वावो । दवरदि दनवा दहो या नाांव राया ॥ ६१६ ॥
यापरी भजनाच ेपोटीं । भदि-दवरदि-प्रादप्त दत्रपटुी । ऐक्यभावें सि भिाां उठी । हदरभजनदिठी एकेदच काळीं ॥ ६१७ ॥
यालागीं राया दनजदहताथीं । आिरें करावी हदरभिी । तणेें अवश्य भगवत्प्राप्ती । उपसांहाराथी कदव साांग े॥ ६१८ ॥
इत्यच्या गतुाङ दघ्रां भजतोऽनवुतृ्त्या भदिदव दरदिभ दगवत्प्रबोिः । भवदि व ैभागवतस्य राजन
ततः पराां शादिमपुदैत साक्षात ॥ ४३ ॥ यापरी अनन्य भिी । ज ेसव दिा सव दभ तीं कदरती ।
त ेभिी-दवरिी-भगवत्प्राप्ती । सहजें पावती अनायासें ॥ ६१९ ॥ राया हदरभदिदिव्याांजन । तें ले ऊदन भि सज्जन ।
सादिती भगवदन्निान । दनजभजनमहायोगें ॥ ६२० ॥ कदरताां ऐक्यभावें दनजभिी । उतृ्कष्ट उपज ेप ण द शाांती ।
तणेें होय ेअसताांची दनवतृ्ती । भिाां प ण दप्रादप्त परमान ांिें ॥ ६२१ ॥ यालागीं िन्य भगवि भि । इांदद्रयीं वत दता दवषयी दवरि । िहेीं असोदन िहेातीत । दनत्यमिु हदरभजनें ॥ ६२२ ॥ भावें कदरताां भगवि भिी । भि मिुीही न वांदछती ।
तरी त्याांपाशी चारी मिुी । िास्य कदरती सव दिा ॥ ६२३ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ७१ दिनाांक २६/०४/२०१५
हा भागवताांचा दनजमदहमा । अनपुम नाहीं उपमा । भावें भजोदन परुुषोत्तमा । परमात्मगदरमा पावले ॥ ६२४ ॥
अगाि भगवांताची भिी । भिाांची उतृ्कष्ट प्राप्ती । ऐकताां दविहेचक्रवती । आियें दचत्तीं चमत्कारला ॥ ६२५ ॥ म्हण ेिन्य िन्य भगवि भजन । हदरखें कवीस लोटाांगण ।
िादलताां चादललें सु्फां िन । रोमाांदचत नयन अश्रपु ण द जाहले ॥ ६२६ ॥
आनांिस्विेें काांपत । नावके रादहला तटस्थ । सवेंदच जाहला सावदचत्त । म्हण ेझणीं महांत न पसुताां जाती ॥ ६२७
॥ ऐदशया अदतकाकुलतीं । नते्र उिडोदन पाहे नपृती ।
बसैली िखेोदन मदुनपांिी । अदतशयें दचत्तीं सखुावला ॥ ६२८ ॥ तणेें सांतोषें डोलत । म्हण ेप ण दप्राप्त भगवि भि ।
जगीं कैस ेकैस ेदवचरत । तीं दचन्हें समस्त पसुों पाहों ॥ ६२९ ॥ श्रीराजोवाच ।
अथ भागवतां ब्र त यद्धमो यादृशो नणृाम । यथाचरदत यद्ब्र त ेयदैलदङ्गैभ दगवदत्प्रयः ॥ ४४ ॥
भिाां 'प ण दप्रादप्त' सगुम । ऐकताां राजा दनवाला परम । तो भिदचन्हानकु्रम । सम ळ सवमद प सत ॥ ६३० ॥ दविहे म्हण ेस्वामी मनुी । प ण द प्रादप्त आकळोनी ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ७२ दिनाांक २६/०४/२०१५
त ेभि कैस ेवत दती जनीं । तीं लक्षणें श्रवणीं लेववी मज ॥ ६३१ ॥ भिलक्षणभ षण । तणेें मांदडत करा श्रवण ।
सावि ऐकताां सांप ण द । हो इज ेआपण भगवदत्प्रय ॥ ६३२ ॥ त्याांचा कोण िम द कोण कमद । कैस ेवत दती भिोत्तम ।
हृियीं िरोदन परुुषोत्तम । त्याांचें बोलतें वम द तें कैसें ॥ ६३३ ॥ कोणपेरी कैशा दस्थतीं । हदरभि हरीस दप्रय होती ।
ऐदशया लक्षणाांदचया पांिी । सम ळ मजप्रती साांदगज ेस्वामी ॥ ६३४ ॥
दविहेाच्या गा प्रश्नावरी । सांतोदषज ेमनुीश्वरीं । कदविाकुटा जो काां हरी । तो बोलावया वखैरी सरसावला ॥ ६३५ ॥
श्रीहदवरुवाच । सवदभ तषे ुयः पश्यिे भगवि भावमात्मनः ।
भ तादन भागवत्यात्मन्यषे भागवतोत्तमः ॥ ४५ ॥ हदर म्हण ेरायाप्रती । अदमत भिलक्षणदस्थती ।
एक दिगांबरत्वें वत दती । एक स्वाश्रमदस्थती दनजाचरें ॥ ६३६ ॥ एक सिा पडले असती । एकाांची त ेउन्मािदस्थती ।
एक सिा गाती नाचती । एक त ेहोती अबोलण े॥ ६३७ ॥ एक गज दनीं हदरनामें । एक दनिा ददळती दनजकमें ।
एक भ तियाळ िानिमें । एक भजननमेें राहती ॥ ६३८ ॥ ऐशा अनांत भिदस्थती । साांगताां साांगावया नाकळे वतृ्ती ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ७३ दिनाांक २६/०४/२०१५
त्याांमाजीं मखु्य सांकदलतीं । राया तजुप्रती साांगने ॥ ६३९ ॥ प ण दप्राप्तीचा मखु्य ठावो । सवाां भ तीं भगवि भावो ।
हादच प ण दभिीचा दनजगौरवो । तोदच अदभप्रावो हदर साांग े॥ ६४० ॥ सवद भ तीं मी भगवांत । सव द भ तें मजआांत ।
भ तीं भ तात्मा मीदच समस्त । मीदच मी यथे परमात्मा ॥ ६४१ ॥ ऐसें जें प ण दत्वाचें मीपण । तणेें वाढ ेआत्मादभमान ।
सहजें दनजदनरदभमान । तें शदु्ध लक्षण ऐक राया ॥ ६४२ ॥ शदु्ध भिाांचें दनजलक्षण । प्रत्यगात्मयाचें जें मीपण ।
तेंही मान दनयाां गौण । भावना प ण द त्याांची ऐसी ॥ ६४३ ॥ सवाां भ ती भगवांत । भ तें भगवांती वत दत ।
भ तीं भ तात्मा तोदच समस्त । मी म्हणण ेतथे मीपणा न य े॥ ६४४ ॥ सवद भ तीं भगवांत पाहीं । भ तें भगवांताच ेठायीं ।
हें अविें िखे ेजो स्विहेीं । स्वस्वरूप पाहीं स्वयें होय ॥ ६४५ ॥ तो भिाांमाजीं अदतश्रषे्ठ । तो भागवताांमाजीं वदरष्ठ ।
त्यासी उत्तमत्वाचा पट । अवतार श्रषे्ठ मादनती ॥ ६४६ ॥ तो योदगयाांमाजीं अग्रगणी । तो ज्ञादनयाांचा दशरोमणी ।
तो दसद्धाांमाजीं मगुटुमणीं । हें चक्रपाणी बोदलला ॥ ६४७ ॥ जशैा ितृादचया कदणका । ितृेंसीं नव्ती आदणका ।
तवेीं भ तें भौदतकें व्यापका । दभन्न िखेा किा नव्ती ॥ ६४८ ॥ ह ेउत्तम भिाांची दनजदस्थती । राया जाणावी सदुनदितीं ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ७४ दिनाांक २६/०४/२०१५
आताां मध्यम भि कैस ेभजती । त्याांची भजनगती ऐक राया ॥ ६४९ ॥
ईश्वरे तििीनषे ुबादलशषे ुदिषत्स ुच । प्रमेमतै्रीकृपोपके्षा यः करोदत स मध्यमः ॥ ४६ ॥ ईश्वर मानी उत्तमोत्तम । ति भि मानी मध्यम ।
अज्ञान तो मानी अिम । िेषी त ेपरम पापी मानी ॥ ६५० ॥ ईश्वरी 'प्रमे' पदवत्र । भिाांसी 'मतै्री' मात्र ।
अज्ञानी तो कृपापात्र । उपके्षा दनरांतर िदेषयाांची ॥ ६५१ ॥ ह ेमध्यम भिाांची भिी । राया जाण ऐदशया दरतीं ।
आताां प्राकृत भिाांची दस्थती । तहेी तजुप्रती साांगने ॥ ६५२ ॥ अचा दयामवे हरय ेप जाां यः श्रद्धयहेत े।
न ति भिेष ुचान्यषे ुस भिः प्राकृतः स्मतृः ॥ ४७ ॥ पाषाणप्रदतमा हादच िवेो । तथेेंदच ज्याचा प ण द भावो ।
भि-सांत-सज्जनाांसी पहा वो । अणमुात्र िहेो लवों निेी ॥ ६५३ ॥ त ेठायीं सािारण जन । त्याची वाता द पसु ेकोण ।
त्याांसी स्वप्नींही नाही सन्मान । यापरी भजन प्राकृताचें ॥ ६५४ ॥ ऐदशया दस्थतीं जो जड भिु । तो जाणावा मखु्य प्राकृत ु। प्रदतमाभांगें अांत ु। मानी दनदित्य िवेाचा ॥ ६५५ ॥ यापरी दत्रदवि भि । साांदगतले भजनयिु ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ७५ दिनाांक २६/०४/२०१५
परी उत्तमाांचीं लक्षणें अि भ त । ती साांगावया दचत्त उदित माझें ॥ ६५६ ॥
गहृीत्वापीदियरैथा दन यो न िेदष्ट न हृष्दत । दवष्णोमा दयादमिां पश्यन स व ैभागवतोत्तमः ॥ ४८ ॥
> इांदद्रयें दवषयाांतें सदेवती । परी सखुदुःख नमुटे दचत्तीं । दवषय दमर्थ्यात्वें िखेती । त ेजाण दनदितीं उत्तम भि ॥ ६५७ ॥
मगृजळीं जणेें केलें स्नान । तो नाहताां कोरडादच जाण । तवेीं भोगीं ज्याांसी अभोिेपण । त ेभि प ण द उत्तमोत्तम ॥ ६५८ ॥
उत्तम भि दवषय सदेवती । हा बोलु रूढला प्राकृताांप्रती । त्याांसी दवषयीं नाहीं दवषयस्फ ती । त्यादगती भोदगती िोनी दमर्थ्या ॥
६५९ ॥ स्वप्नींचें केळें रायभोगें । जागा हो ऊदन खावों माग े।
तणेें हात ुमाख ेना तोंडी लाग े। तवेीं दवषयसांगें हदरभि ॥ ६६० ॥ यथेवरी दमर्थ्या दवषयभान । तरी सवेावया त्याांसी काय कारण । यथे प्रारब्ध बळी प ण द । तें अवश्य जाण भोगवी ॥ ६६१ ॥ परी मी एक दवषयभोिा । ही स्वप्नींही त्यास नमुटे कथा ।
यालागीं उत्तम भागवतता । त्यासीच तत्त्वताां बाणली ॥ ६६२ ॥ यापरी दवषयासिीं । वदत दज ेउत्तम भिीं ।
याहून अगाि दस्थती । साांगने तजुप्रती त ेऐक ॥ ६६३ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ७६ दिनाांक २६/०४/२०१५
िहेदेियप्राणमनोदियाां यो जन्माप्ययक्षतु भयतष दकृचै्छ्ः । सांसारिमरैदवमहु्यमानः
स्मतृ्या हरभेा दगवतप्रिानः ॥ ४९ ॥ िहे-इांदद्रय-मन-बदुद्ध-प्राण । हें दच बांिाचें प ांचायतन ।
क्षिुा तषृा भय के्लश प ण द । जन्ममरण इत्यादि ॥ ६६४ ॥ या पाांचाां स्थानीं अपार श्रम । या नाांव म्हदणज ेसांसारिम द ।
दनजभिाां प्रसन्न आत्माराम । त्याांसी भवभ्रम स्वप्नींही नाहीं ॥ ६६५ ॥
क्षिुा लागदलया िारुण । आन्नआकाांक्षें पीड ेप्राण । भिाां क्षिुचेी नव् ेआठवण । ऐसें अगाि स्मरण हरीचें ॥ ६६६ ॥
भावें कदरताां भगवि भिी । क्षिुतेषृचेी नव्े स्फ ती । एवढी पावले अगाि प्राप्ती । त ेभवभयें दनदितीं डांडळतीना ॥ ६६७
॥ मनामाजीं भवभयभरणी । तें मन रातलें हदरचरणीं ।
आताां भयातें तथे कोण मानी । मन मनपणीं असनेा ॥ ६६८ ॥ मनीं सु्फर ेितैाची स्फ ती । तथे भवभयाची दृढदस्थती ।
त ेमनीं जाहली हरीची वस्ती । यालागीं भवभयदनवतृ्ती ितैेंसीं ॥ ६६९ ॥
िहेबदु्धीमाजीं जाणा । नानापरी उठती तषृ्णा ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ७७ दिनाांक २६/०४/२०१५
त ेबदु्धी दनियें हरीच्या गा स्मरणा । कदरताां पदरप णा द दवनटली स्वयें ॥ ६७० ॥
जथेें जें जें सु्फरे तषृ्णासु्फरण । तथेें स्वयें प्रगटे नारायण । तवे्ाां तषृ्णा होय दवतषृ्ण । दवर ेसांप ण द प णा दमाजीं । ६७१ ॥
यापरी गा तषृ्णारदहत । हदरस्मरणें भगवि भि । इांदद्रयके्लशाां भि अदलप्त । तोही वतृ्ताांत ऐक राया ॥ ६७२ ॥
मखु्य कष्टाचें अदिष्ठान । इांदद्रयकमीं राया जाण । त ेइांदद्रयकमीं ब्रह्मसु्फरण । हदरभिाां प ण द हदरभजनें ॥ ६७३ ॥
दृष्टीनें ि ेऊां जाताां िश दन । दृश्यमात्रीं प्रगटे नारायण । श्रवणीं शब्द ितेाां जाण । शब्दाथीं प ण द दवराज ेवस्त ु॥ ६७४ ॥
घ्राणीं ितेाां नाना वास ु। वासावबोिें प्रगटे परेश ु। रसना सवेी जो जो रस ु। रसीं ब्रह्मरस ुदनजस्वािें प्रगटे ॥ ६७५ ॥
िहेीं लागताां शीत-उष्ण । अथवा काां मदृु-कठीण । तथेें स्पशद ज्ञानें जाण । दचन्मात्र प ण द प्रगटे स्वयें । ६७६ ॥
आताां कमेंदद्रयप्रवतृ्ती । तथेही सु्फर ेब्रह्मसु्फती । िणेें िणेें गमनदस्थती । इांदद्रयाां गती आत्मारामें ॥ ६७७ ॥ ऐस ेकदरताां इांदद्रयें कष्ट । त ेकष्टीं होय दनजसखु प्रगट ।
तणेें इांदद्रयाां दवश्राांदत चोखट । दपकली स्वानांिपठे हदरभिाां ॥ ६७८ ॥ जणेें इांदद्रयाां कष्ट होती । तणेेंदच इांदद्रया सखुप्राप्ती ।
ह ेभगवि भजनीं दनजयिुी । भोदगज ेहदरभिी हरीचदेन स्मरणें ॥ ६७९ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ७८ दिनाांक २६/०४/२०१५
जन्म आदण मरण । हें िहेाच ेमाथाां जाण । भि िहेीं दविहेी प ण द । ध्याताां हदरचरण हदररूप जाहले ॥ ६८० ॥
यालागीं िहेाची अहांता । किा नपुज ेभगवि भिाां । त ेभिप ण दतचेी कथा । ऐक नपृनाथा साांगने ॥ ६८१ ॥ िहे िदरल्या पांचाननें । भि न डांडळी जीवें प्राणें ।
वांध्यापतु्र सळुीं िणेें । िहेाचें मरणें तवेीं िखे े॥ ६८२ ॥ छाया पालखीं बसैावी । ऐसें कोणी दचांतीना जीवीं ।
तशैी िहेासी पिवी यावी । हा नठुी सि भावीं लोभ भिाां ॥ ६८३ ॥ िहेासी आदलया नाना दवपत्ती । भिाां खदेु नमुटे दचत्तीं । जवेीं आकाश शस्त्रिातीं । न य ेकाकुळती तसै ेत े॥ ६८४ ॥ जननीजठरीं िहेो जन्मला । भिु न म्हण ेमी जन्मा आला ।
रदव दथल्लरुीं प्रदतदबांबला । दथल्लरु मी जाहला किा न म्हण े॥ ६८५ ॥ सायांप्रातः स य द प्रकाश े। अभ्रीं गांिव दनगर आभास े।
िहे प्रदतपाळी अदृष्ट तसैें । म्ाां केलें ऐसें सु्फरनेा ॥ ६८६ ॥ भििहेासी यतेाां मरण । हतेरुदहत हरीचें स्मरण ।
यालागीं िहे दनमाल्या आपण । न मरताां प ण द प ण दत्वें उरें ॥ ६८७ ॥ दथल्लरुा सम ळ नाश ुझाला । तरी रदव न म्हण ेतो दनमाला ।
तवेीं िहेो गदेलया भि उरला । सि रूपें सांचला हदरस्मरणें ॥ ६८८ ॥ आिीं काय सप ुद मारावा । मग िोरातें िोरु करावा ।
तो न पालटताां दनजगौरवा । िोरूदच अिवा िोररूपें ॥ ६८९ ॥ तवेीं हदरभिाां िहेाच्या गा अभावो । मा काळ कवणा िालील िावो ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ७९ दिनाांक २६/०४/२०१५
आताां आम्ही त ेआम्हीच आहों । तें आम्हीपणही वावो आमचुदेन आम्हाां ॥ ६९० ॥
एत्यादि सांसारिहेिम द । ज्यासी स्पशों न शके कमा दकम द । मोहें नव्ेदच भवभ्रम । तो भिोत्तम प्रिानत्वें ॥ ६९१ ॥ राया आदणकही एक ख ण । तजु मी साांगने सांप ण द ।
ज्याचा काम होय नारायण । तें भिलक्षण अविारीं ॥ ६९२ ॥ न कामकमदबीजानाां यस्य चतेदस सम्भवः । वासिुवेकैदनलयः स व ैभागवतोत्तमः ॥ ५० ॥
हृियीं दचांदतताां आत्माराम । ति रूप जाहला हृियींचा काम । त्यासी सव द कमी परुुषोत्तम । िवेिवेोत्तम तषु्टोदन प्रगटे । ६९३ ॥ तथेें ज्या ज्या वासना हृियवासी । त्याही पडकल्या हदरमखुासी । एवां वासना जडल्या हदररूपाशीं । हदर आश्रयो त्याांसी दृढ जाहला ॥
६९४ ॥ तथे जो जो भिाांसी काम ु। तो तो होय आत्माराम ु। वासनचेा दनजसांभ्रम ु। परुुषोत्तम ुस्वयें होय े॥ ६९५ ॥ जगीं हदरभदि उत्तमोत्तम । भि कामेंदच करी दनष्काम ।
चादळताां वासना-अनकु्रम । दनवा दसन ब्रह्म प्रकाश ेस्वयें ॥ ६९६ ॥ ग्रासोग्रासीं रामस्मरण । तें अन्नदच होय ब्रह्म प ण द । भि भोगी मिुपण । या रीतीं जाण दविहेा ॥ ६९७ ॥ ऐसा जो दनष्कामदनष्ठ । तोदच भागवताांमाजीं श्रषे्ठ ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ८० दिनाांक २६/०४/२०१५
त्यासीच प्रिानत्वपट । जाण तो वदरष्ठ उत्तमत्वें ॥ ६९८ ॥ उत्तम भि कैस ेदवचरती । त्या भिाांची दवचरणदस्थती ।
त ेसाांदगतली राया तजुप्रती । यथादनगतुी तीं श्लोकीं ॥ ६९९ ॥ उत्तम भि कोणें दलांगेंसी । आवडत ेजाहले भगवांतासी । तें लक्षण साांगावयासी । अदत उल्हासीं हदर बोले ॥ ७०० ॥
न यस्य जन्मकमदभ्याां न वणा दश्रमजादतदभः । सज्जतऽेदस्मन्नहांभावो िहेे व ैस हरेः दप्रयः ॥ ५१ ॥
प्राकृताां िहेीं िहेादभमान । तणेें गरुुकृपा कदरताां भजन । पालटे अदभमानाचें दचन्ह । अहां नारायणभावनायिु ॥ १ ॥ अहां िहे हें सम ळ दमर्थ्या । अहां नारायण हें सत्य सत्त्वताां ।
ऐशी भावना दृढ भादवताां । त ेभावना आांतौता अदभमान दवरे ॥ २ ॥ अदभमान हदरचरणीं लीन । तवे्ाां भि होय दनरदभमान । तेंदच दनरहांतचेें लक्षण । हदर सांप ण द साांगत ॥ ३ ॥
दनरहांकाराचीं लक्षणें । तो जन्मोदन मी जन्मलों न म्हण े। सवुणा दचें केलें शनुें । तरी सोनें श्वान हों नणे ेतिाकारें असताां ॥ ४ ॥
तवेीं जन्मादि अहांभावो । उत्तम भिाां नाहीं पहा हो । कमददक्रयचेा दनवा दहो । अहांकता द स्वयमवेो मानीना ५ ॥
तो कम द करी परी न म्हण ेमी कता द । जवेीं गगनीं असोदन सदवता । अदि उपजवी स य दकाांता । तवेीं करोदन अकता द दनजात्मदृष्टीं ॥ ६ ॥
स य ेस य दकाांतीं अदिसांग । तणेें होत ुयाग काां िाि ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ८१ दिनाांक २६/०४/२०१५
तें बाि ां न शके स या दचें अांग । तवेीं हा चाांग करूदन अकता द ॥ ७ ॥ अचतेन लोह च ुांबकें चळे । लोहकमें च ुांबक न मळेै ।
तवेीं हा कमें करूदन सकळें । अनहांकृदतबळें अकता द ॥ ८ ॥ िहेींचीं कमें अदृष्टें होती । मी कता द म्हणताां तीं बािती ।
भिाां सव द कमीं अनहांकृती । परमात्मप्रतीती भजनयोगें ॥ ९ ॥ एवां िहेींचीं कमें दनपजताां । प ण दप्रतीती भि अकता द ।
कमा दकमा दची अवस्था । निे ेतो माथाां अनहांकृती ॥ १० ॥ जरी जाहला उत्तमवणद । तरी तो न म्हण ेमी ब्राह्मण ।
स्फदटक कुां कुमें दिस ेरिवणद । । "मी लोहीवा प ण द" स्फदटक न म्हण े॥ ११ ॥
ज्यासी नाही िहेादभमान । तो हाती न िरी िहेाचा वण द । तसैादच आश्रमादभमान । भि सज्ञान न िरी किा ॥ १२ ॥ अांगीं बाणला सांन्यास ु। परी तो न म्हण ेमी परमहांस ु।
जवेी नटा अांगीं रजदवलास ु। तो राजउल्हास ुनट न मानी ॥ १३ ॥ तवेीं आश्रमादि अवस्था । भि न िरीच सव दथा ।
तशैीच जातीचीही कथा । न ि ेमाथाां भिोत्तम ॥ १४ ॥ जाती उांच नीच असांख्य । परी तो न म्हण ेह ेमाझीदच एक ।
जवेीं गांगातीरीं गाांव अनके । परी गांगा माझा एक गाांव न म्हण े॥ १५ ॥
तवेीं जन्म-कमद-वणा द-श्रम-जाती । प ण द भि हातीं न िदरती । चहूां िहेाांची अहांकृती । स्वप्नींही न िदरती हदरभि ॥ १६ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ८२ दिनाांक २६/०४/२०१५
आशांका ॥ तरी काय वणा दश्रम-जाती । भि दनःशषे साांदडती । त्याांत असोदन नाहीं अहांकृती । त ेह ेउपपदत्त बोदललो राया ॥ १७ ॥ तो जवे्ाां पाव ेजन्मप्राप्ती । तवे्ाां त्यासवें नाहीं वणा दश्रम-जाती । जन्मअदभमानें माथाां ितेी । हे कुळगोत-जादत पैं माझी ॥ १८ ॥
ऐशा नादथल्या अहांकृती । ब्रह्मादिक ग ुांतले ठाती । वाढदवता वणा दश्रम जाती । सज्ञान ग ुांतती दनजादभमानें ॥ १९ ॥ ऐशी अहांतचेी अदतदुि दर गती । यथेें ब्रह्मादिकाां नव् ेदनवतृ्ती । सोड ां नणे ेगा कल्पाांती । सज्ञान ठादकजतेी दनजादभमानें ॥ २० ॥ यथेें भिाांच्या गा भादवक दस्थतीं । अदभमान तटेु भगवि भिीं ।
त ेदनरदभमान भिदस्थती । राया तजुप्रती िादवली स्वयें ॥ २१ ॥ सम ळ िहेादभमान झड े। तो िहेीदच िवेासी आवड े। त ेभि जाण वाडकेोडें । लळेवाड ेहरीच े॥ २२ ॥ त ेजें जें मागती कौतकुें । तें िवेोदच होय दततकुें ।
त्याांचदेन परम सांतोखें । िवे सखुावला सखुें िोंदिल होय े॥ २३ ॥ तो दजकड ेदजकड ेजाय े। िवे दनजाांगें त ेउता ठाय े। भि ज ेउती वास पाहे । िवे त ेत ेहोय पिाथ द ॥ २४ ॥
त्यासी झणीं कोणाची दृष्टी लाग े। यालागीं िवेो त्या पढुें मागें । त्या सभोवता सवाांगें । भिीचदेन पांगें भलुला चाले ॥ २५ ॥
दनरदभमानाचदेन नाांवें । िवे दनजाांगें करी आिवें । जवेीं काां तान्हयाचदेन जीवें । जीवें भावें दनजजननी ॥ २६ ॥ एवां राखताां दनजभिाांसी । तरी िवे िाके दनजमानसीं ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ८३ दिनाांक २६/०४/२०१५
जरी हा मजसीं आला ऐक्यासी । तरी हे प्रीदत कोणासीं मग करावी ॥ २७ ॥
कोणासी पाहों कृपादृष्टीं । कोणापें साांगों दनजगोष्टी । कोणासी खवेें िवेों दमठी । ऐशी आवडी मोठी प्रमेाची ॥ २८ ॥
या काकुळतीं श्रा अनांत ु। ऐक्यभावें करी दनजभिु । मग िवेो भि िोहींआांत ु। िवेोदच नाांित ुस्वानांिें ॥ २९ ॥ एवां आपलुी आपण भिी । करीतस ेअनन्यप्रीतीं । हेंदच दनरूपण विेाांतीं । अितैभदि या नाांव ॥ ३० ॥ त्यासी चहूां भजुीं आदलांदगताां । हाांव न बाणदेच भगवांता । मग दरिोदनयाां आांतौता । परमाथ दता आदलांगी ॥ ३१ ॥ ऐसें खेंवाचें मीस करी । तणेें भि आणी आपणाभीतरीं । मग आपण त्या आांतबाहेरी । अदतप्रीतीवरी कोंिाटे ॥ ३२ ॥ नवल आवडीचा दनवा दहो । झणीं लाग ेकाळाचा िावो ।
यालागीं दनजभिाांचा िहेो । िवेादििवेो स्वयें होय े॥ ३३ ॥ ऐसा जो पदढयांता परम । तो भागवताांमाजीं उत्तमोत्तम । यापरी भागवतिमद । परुुषोत्तम वश्य करी ॥ ३४ ॥ ऐदशया उत्तम भिा । भिेाची सम ळ नरु ेवाता द । हदेच अभिेभिकथा । ऐक नपृनाथा साांगने ॥ ३५ ॥ न यस्य स्वः पर इदत दवत्तषे्वात्मदन वा दभिा । सवदभ तसमः शािः स व ैभागवतोत्तमः ॥ ५२ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ८४ दिनाांक २६/०४/२०१५
अितैभजनाच ेवोजें । मी माझें त ां आदण तझुें । ज्यासी नरुदेच सहज दनजें । तो भि मादनज ेउत्तमत्वें ॥ ३६ ॥ यापरी ज्याच ेदचत्ताच ेठायीं । भदेु दनःशषे उरला नाहीं ।
तथे माझें तझुें हें काांहीं । तें दनमालें पाहीं जथेींच्या गा तथेें ॥ ३७ ॥ जवेीं अिीशीं जें जें टें के । तें तें अिीदच हो ऊदन ठाके ।
तवेीं अभिेभि जें जें िखे े। तें तें यथासखुें स्वस्वरूप होय े॥ ३८ ॥ दनजदवत्त आदणकापाशीं ितेाां । आवाांक नपुज ेत्यादचया दचत्ता ।
न िखे ेपारकेपणाची वाता द । दवकल्प िादलताां तरी उपजनेा ॥ ३९ ॥ डाव ेहातींच ेपिाथा द । उजव ेहातीं स्वयें ितेाां ।
यथेें कोण ितेा कोण ितेा । तवेीं एकात्मता सव दभ तीं ॥ ४० ॥ आपणासकट सवद िहेीं । भिाां भगवांतावाांच दन नाहीं ।
यालागीं शाांदत त्याच ेठायीं । स्वानांिें पाहीं दनःशांक नाांि े॥ ४१ ॥ ऐदशया दनजसमशाांतीं । भगवि भि क्रीडा कदरती । यालागीं उत्तमत्वाची प्राप्ती । सदुनदितीं पावले ॥ ४२ ॥
हदरभिाांची दनरपके्षता । ऐक साांगने नपृनाथा । उत्तम भिाांची साांगताां कथा । अदत उल्हासता हरीसी ॥ ४३ ॥
दनरपके्ष तो मखु्य भि । दनरपके्ष तो अदत दवरि । दनरपके्ष तो दनत्यमिु । सत्य भगवांत दनरपके्षी ॥ ४४ ॥
दत्रभवुनदवभवहेतवऽेप्यकुण्ठ स्मदृतरदजतात्मसरुादिदभदव दमगृ्यात ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
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न चलदत भगवत्पिारदवन्दात लवदनदमषाि दमदप यः स वषै्णवाग्र्यः ॥ ५३ ॥
सप्रमेभावें कदरताां भिी । हदरचरणीं ठेदवली दचत्तवतृ्ती । दनजस्वाथा ददचय ेदस्थतीं । अदतप्रीतीं दनजदनष्ठा ॥ ४५ ॥
तथेें दत्रलोकींच्या गा सकल सांपत्ती । कर जोड दन वरूां प्रादथ दती । तरी क्षणाि द न काढी दचत्तवतृ्ती । भि परमाथी अदतलोभी ॥ ४६ ॥
क्षणाि द दचत्तवतृ्ती कादढताां । दत्रभवुनदवभव य ेहाता । एवदढया साांड दन स्वाथा द । म्हणाल हदरभिाां लाभ कोण ॥ ४७ ॥ हदरचरणीं अपरोक्षदस्थदत । तथेील क्षणािा दची ज ेप्राप्ती । त्यापढुें दत्रभवुनसांपत्ती । भि मादनती तणृप्राय ॥ ४८ ॥ सकळ जगाचा स्रदजता । ब्रह्मा दपतामहो तत्त्वताां ।
त्रलैोक्यराज्यसमथ दता । वोळग ेवस्ततुाां अांगणीं ज्याच े॥ ४९ ॥ दत्रभवुनवभैवाच ेमाथाां । ब्रह्मपिाची समथ दता ।
तो ब्रह्माही दनजस्वाथा द । होय दगांवदसता हदरचरण ॥ ५० ॥ त्यागोदन ब्रह्मवभैवसांपत्ती । ब्रह्मा बसैोदन एकाांतीं ।
अहदन दशीं हदरचरण दचांती । तरी त्या प्रादप्त सहसा नव् े॥ ५१ ॥ सहसा न पव ेहदरचरण । यालागीं ब्रह्मा सादभमान ।
तणेें अदभमानेंदच जाण । नलेीं चोरून गोपाल-वत्सें ॥ ५२ ॥ तथेें न कष्टता आपण । न मोडताां कृष्णपण ।
गोपाल-वत्सें जाहला सांप ण द । प ण दत्वें प ण द स्वलीला ॥ ५३ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ८६ दिनाांक २६/०४/२०१५
अगाि हदरलीला प ण द । पाहताां वडेावलें ब्रह्मपण । तवे्ाां साांडोदन पिादभमान । अनन्यशरण हदरचरणीं ॥ ५४ ॥
कैलासराणा श लपाणी । ब्रह्मा लाग ेज्याच ेचरणीं । तोदह दनजराज्य साांडोनी । महाश्मशानीं हदरचरण दचांती ॥ ५५ ॥
कौपीनभस्मजटािारी । चरणोिक िरोदन दशरीं । हदरचरण हृियामाझारीं । दशव दनरांतरीं दचांतीत ॥ ५६ ॥ एवां ब्रह्मा आदण शांकर । चरणाांच ेन पवती पार ।
तथेें त्रलैोक्यवभैव थोर । मानी तो पामर अदतमांिभाग्य ॥ ५७ ॥ हदरचरणक्षणाि दप्राप्ती । त्रलैोक्यराज्यसांपत्ती ।
भि ओ ांवाळ दन साांदडती । जाण दनदितीं दन ांबलोण ॥ ५८ ॥ हदरचरणसारामतृगोडी । क्षणाि द जैं जोड ेजोडी ।
तैं त्रलैोक्यवभैवाच्या गा कोडी । करी कुरवांडी दनजभि भावें ॥ ५९ ॥ एवां हदरचरणाांपरतें । सारामतृ नाहीं यथेें ।
यालागीं दचत्तें दवत्तें जीदवतें । जडले सदुनदितें चरणारदवांिी ॥ ६० ॥ दनदमषाि द त्रटुी लव क्षण । ज ेन सोदडती हदरचरण ।
त ेवषै्णवाांमाजीं अग्रगण । राया त ेजाण "उत्तम भि" ॥ ६१ ॥ ज ेदत्रभवुनदवभवभोग भोदगती । तहेी पावले अनतुापवतृ्ती । त्याांच्या गा तापाची दनजदनवतृ्ती । हदरचरणप्राप्ती तें ऐक ॥ ६२ ॥
भगवत उरुदवक्रमाङ दघ्रशाखा नखमदणचदिकया दनरस्तताप े।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ८७ दिनाांक २६/०४/२०१५
हृदि कथमपुसीिताां पनुः स प्रभवदत चि इवोदितऽेकदतापः ॥ ५४ ॥
थोर हदरचरणाचा पराक्रम । पिें त्रलैोक्य आवरी दत्रदवक्रम । ब्रह्माांड भिेोदन पिदु्रम । वाढला परमसामर्थ्यें ॥ ६३ ॥ त ेपिदु्रमींदचया िशशाखा । त्यादच िशिा िशाांगदुलका । अग्रीं अग्रफळचांदद्रका । नखमदण िखेा लखलदखत ॥ ६४ ॥ त ेनखचांदद्रकेच ेचांद्रकाांत । चरणचांद्रामतृें दनत्य स्रवत । भिचकोर त ेसदेवत । स्वानांिें तपृ्त सव दिा ॥ ६५ ॥
त्याांसी कामादि दत्रदवितापप्राप्ती । सव दथा बाि ां न शके पढुती । जवेीं स या दची सांतप्त िीप्ती । चांद्रदबांबा आांतौती किा न दरि े॥ ६६ ॥ ज ेहदरचरणचांद्रचकोर । स्वप्नींही सांसारताप न य ेत्याांसमोर । ऐसा चरणमदहमा अपार । हदर मनुीश्वर हषें वणी ॥ ६७ ॥
'िहे ेव ैस हरःे दप्रयः' । यणेें श्लोकें गा दविहे्या । िादवली भदिदलांगदक्रया । जाण त राया सदुनदित ॥ ६८ ॥
'न यस्य स्वः पर इदत' । यणेें त्याची िम ददस्थती । राया साांदगतली तजुप्रती । यथादनगतुीं यथाथ द ॥ ६९ ॥ 'यादृश' म्हण ेकैस ेअसती । भगवि भजनें स्वानांितदृप्त । दत्रदवि तापाांची दनवतृ्ती । करोदन असती हदरभि । ७० ॥ आताां त्याांची बोलती परी । नामें गज दती दनरांतरीं । तदेच त ेसांक्षपेाकारीं । उपसांहारीं हदर साांग े॥ ७१ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ८८ दिनाांक २६/०४/२०१५
सकळ लक्षणाांची सारदस्थदत । प्रमेळाची परमप्रीती । उल्लांि ां न शके श्रीपती । तहेी श्लोकाथीं हदर साांग े॥ ७२ ॥
दवसजृदत हृियां न यस्य साक्षात हदररवशादभदहतोऽप्यिौिनाशः । प्रणयरसनया ितृाङ दघ्रपद्मः
स भवदत भागवतप्रिान उिः ॥ ५५ ॥ इदत श्रीमि भागवत ेमहापरुाण ेपरमहांसायाां सांदहतायाां
एकािशस्कन्ध ेदितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ अवचटें तोंडा आल्या हरी । सकळ पातकें सांहारी । तें हदरनाम दनरांतरीं । ज ेदनजगजरीं गज दती ॥ ७३ ॥
ऐसें ज्याांच ेदजव्वेरी । नाम नाच ेदनरांतरीं । तें िन्य िन्य सांसारीं । स्वानांिें हदर गज ददत ॥ ७४ ॥ सप्रमे सि भावें सांप ण द । दनत्य कदरताां नामस्मरण ।
वदृत्त पालटती आपण । तेंही लक्षण ऐक राया ॥ ७५ ॥ नामासदरसाच हरी । दरि ेहृियामाझारीं ।
तणेें िाकें अभ्यांतरीं । हों लाग ेपरुी हृियशदु्धी ॥ ७६ ॥ तवे्ाां प्रपांच साांडोदन वासना । जडोदन ठाके जनाि दना ।
'अहां'कारु साांडोदन अहांपणा । सोहां सिनामाजीं दरि े॥ ७७ ॥ दचत्त दवसरोदन दचत्ता । जडोदन ठाके भगवांता ।
मनाची मोडली मनोगतता । सांकल्प दवकल्पता करूां दवसरे ॥ ७८ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ८९ दिनाांक २६/०४/२०१५
कृतदनियेंसीं बदु्धी । हो ऊदन ठाके समािी । ऐशी िखेोदन हृियशदु्धी । तथेोदन दत्रशदु्धी न दरि ेहरी ॥ ७९ ॥
हदरनामप्रमेप्रीतीवरी । हृियीं दरिाला जो हरी । तो दरिों दवसरे बाहरेी । भिप्रीदतकरीं कृपाळ ॥ ८० ॥ भिें प्रणयप्रीतीची िोरी । तणेें चरण िरोदन दनिा दरीं । दनजहृियीं बाांदिला हरी । तो कैशापरी दनिले ॥ ८१ ॥ भगवांत महा अतबु दळी । अिट ितै्याांतें दनि दळी ।
तो कोंदडला हृियकमळीं । हे गोष्टी सम ळीं दमर्थ्या म्हणती ॥ ८२ ॥ जो शषु्क काष्ठ स्वयें कोरी । तो कोंवळ्या कमळामाझारीं । भ्रमर ग ुांतला प्रीतीवरी । केसर माझारीं कुचांबो निेी ॥ ८३ ॥ तवेीं भिादचया प्रमेप्रीतीं । हृियीं कोंदडला श्रीपती ।
तथे ख ुांटल्या सामर्थ्यदशिी । भावाथा दप्रती बळ न चले ॥ ८४ ॥ बाळ पालवीं िाली दपळा । तणेें बाप राहे थोकला ।
तरी काय तो दनब दळ जाहला । ना तो स्नहेें भलुला ढळेना ॥ ८५ ॥ तवेीं दनजभि लडवेाळ । त्याचें प्रमे अत्यांत गोड ।
दनिावयाची दवसरोदन चाड । हृियीं सरुवाड हदर मानी ॥ ८६ ॥ ऐसें ज्याचें अांतःकरण । हदर न साांडी स्वयें आपण ।
तसैदेच हरीच ेश्रीचरण । जो साांदडना प ण द प्रमेभावें ॥ ८७ ॥ हरीच ेठायीं प्रीदत ज्या ऐशी । हरीची प्रीदत त्या तसैी । ज ेअनन्य हरीपाशीं हदर । त्याांसी अनन्य सिा ॥ ८८ ॥ ऐस ेज ेहदरचरणीं अनन्य । तदेच भिाांमाजीं प्रिान ।
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ९० दिनाांक २६/०४/२०१५
वषै्णवाांत त ेअग्रगण । राया त ेजाण 'भागवतोत्तम' ॥ ८९ ॥ गौण करूदन चारी मिुी । जगीं श्रषे्ठ भगवि भिी ।
त्या उत्तम भिाांची दस्थती । सांक्षपेें तजुप्रती बोदललों राया ॥ ९० ॥ प ण द भिीचें दनरूपण । साांगताां विेाां पडलें मौन ।
सहस्रमखुाची दजव्ा प ण द । थकोदन जाण थोंटाव े॥ ९१ ॥ त ेभिीची एकाांशता । तजु म्ाां साांदगतली हे कथा । यावरी पदरप ण दता । राया स्वभावताां त ां जाणशी ॥ ९२ ॥ हरीसादरखा रसाळ विा । साांगताां उत्तमभि कथा । तटस्थ पदडलें समस्ताां । भिभावाथ दता ऐकोनी ॥ ९३ ॥ तांव रावो रोमाांदचत जाहला । रोमम ळीं स्विे आला । श्रवणसखुें लाांचावला । डोलों लागला स्वानांिें ॥ ९४ ॥
प ण द सांतोषोदन मनीं । म्हण ेभलें केलें मनुी । थोर दनवालों दनरूपणीं । श्रवणाची िणी तरी न परुे ॥ ९५ ॥
ऐकोदन हरीचें वचन । राजा म्हण ेह ेअवि ेजण । अपरोक्षज्ञानें ज्ञानसांपन्न । विे प ण द अविहेी ॥ ९६ ॥ दभन्न दभन्न करोदन प्रश्न । आकण ां अवघ्ाांचें वचन ।
ऐदशया श्रद्धा राजा प ण द । अनपुम प्रश्न पैं करील ॥ ९७ ॥ रायासी कथचेी प ण द चाड । पढुाां प्रश्न करील गोड । ज ेऐकताांदच परुे कोड । श्रोत ेवाड सखुावती ॥ ९८ ॥ त्या प्रश्नाचें गहु्य ज्ञान । श्रवणीं पाववीन सांप ण द । विनीं विा जनाि दन । यथाथ द प ण द अथ दवी ॥ ९९ ॥
एकनाथी भागवत अध्याय २ -----------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------- वशैाख शकु्ल अष्टमी, शके १९३७ ९१ दिनाांक २६/०४/२०१५
पाांवा नाना मिरु ध्वनी गाज े। परी तो वाजदवत्याचदेन वाज े। तवेीं एका जनाि दनीं साज े। ग्रांथाथ दवोजें कदव कता द ॥ ८०० ॥ इदत श्रीमि भागवत ेमहापरुाण ेएकािशस्कन्ध ेपरमहांस सांदहतायाां
एकाकार टीकायाां दनदमजायांतसांवाि ेदितीयोऽध्यायः ॥ श्रीकृष्णाप दणमस्त ु॥ श्लोक ॥ ५५ ॥ ओव्या ॥ ८०० ॥