Ek Baaz Ki Jeevan
-
Upload
vinay-pathak -
Category
Documents
-
view
234 -
download
0
description
Transcript of Ek Baaz Ki Jeevan
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...
या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...
या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...
या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...
या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...
या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...
या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...
या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...
या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...
या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...
या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...
या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!
बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40 वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निनर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निनष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है वशिशकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निनकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से शिचपकने के कारर्ण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमिमत कर देते हैं।
भोजन ढँूढ़ना, भोजन पकड़नाऔर भोजन खाना....तीनों प्रनि=यायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही निवकल्प बचते हैं,या तो देह त्याग दे,या अपनी प्रवृत्तिA छोड़ निगद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निनवाह करे...या निEरस्वयं को पुनस्थानिपत करे,आकाश के निनर्द्वन्र्द्व एकामिधपनित के रूप में।
जहाँ पहले दो निवकल्प सरल और त्वरिरत हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता हैऔर स्वयं को पुनस्थानिपत करता है।
वह निकसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रनि=या।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!अपनी चोंच तोड़ने से अमिधक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज केशिलये।तब वह प्रतीक्षा करता हैचोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।नये चोंच और पंजे आने के बादवह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निनकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिदन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिमलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनस्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊजा, सम्मान और गरिरमा के साथ।
प्रकृनित हमें शिसखाने बैठी है-पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,चोंच सनि=यता की औरपंख कल्पना को स्थानिपत करते हैं।
इच्छा परिरस्थिस्थनितयों पर निनयन्त्रर्ण बनाये रखने की,सनि=यता स्वयं के अस्तिस्तत्व की गरिरमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सनि=यता और कल्पना...तीनों के तीनों निनबल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यशिक्तत्व ही ढीला पड़ने लगता है,अधजीवन में ही जीवनसमाप्तप्राय सा लगने लगता है,उत्साह, आकांक्षा, ऊजा....अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई निवकल्प होते हैं-कुछ सरल और त्वरिरत.!कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के निववशता भरेअनितलचीलेपन को त्याग कर निनयन्त्रर्ण दिदखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली व= मानशिसकता को त्याग कर ऊजस्तिस्वत सनि=यता दिदखानी होगी-"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकडे़ अस्तिस्तत्व केभारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिदन न सही, तो एक माह ही निबताया जाये, स्वयं को पुनस्थानिपत करने में।जो शरीर और मन से शिचपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,इस बार उड़ानेंऔर ऊँची होंगी,अनुभवी होंगी,अनन्तगामी होंगी....!